पहली बार 326 ई. पू.सिकन्दर के आक्रमण के कारण पंजाब क्षेत्र मेंं बसे जाट अपनी स्वतंत्रता बनाये रखने के लिए वहाँ से मरुप्रदेश की तरफ पलायन कर गये और वे मरु स्थल मेंं अलग - अलग स्थानों पर बस गये । पंजाब से मरुप्रदेश मेंं आने वालों मेंं शिवी, मालव व यौधेय जाट प्रमुख थे । इन जाटों ने यहाँ पर अपने राज स्थापित कर लिये थे। डॉ. गोपीनाथ शर्मा के अनुसार उपर्युक्त जातियों के अतिरिक्त मद्र जाट भी पंजाब से यहाँ पर आये। मूल शिवीयों के वंशज सेऊ, शिवराण, सिवराल, सींवर व छाबा गोत्र है। मद्रों के वंशज जिंजा, बाना, थोरिया, कुलरिया, महला व खीचड़ आदि है। राड़, कढ, मुण्ड तथा बावल भी पंजाब से पलायन कर आये थे। इन जाटों के मरुप्रदेश मेंं जनपद थे जहाँ पर इनका शासन चौथी शताब्दी के प्रारम्भ तक रहा। उपर्युक्त समय मेंं सिंध मेंं भी देवल जाटों का शासन था। लेकिन 650 ई. के आस - पास साहसीराय द्वितीय (जाट) का वध ब्राह्मण चच (मंत्री) ने कर दिया तथा अपना राज कायम कर लिया । इस प्रकार देवल जाटों का शासन सिंध मेंं समाप्त हो गया। चच ने सिंध के उमरकोट व अलोर पर अपना आधिपत्य कायम कर लिया। ब्राह्मण राजा चच के अत्याचारों के कारण वहाँ के जाट सुरक्षित स्थानों की तलाश मेंं राजस्थान की ओर चले आये और वे बाड़मेंर व जालोर के भूभाग मेंं आबाद हो गये।
इतिहासकार डॉ. आर.सी.मजूमदार के मतानुसार कींकन क्षेत्र के बोलन दर्रे के आस-पास जाटों की स्थिति मजबूत थी जिससे 655 - 661 ई. के मध्य अरब मुस्लिम आक्रान्ताओं केा भारत मेंं घुसने से रोकने वाले जाट ही थे ।जाट वीरों के कारण ही बोलन दर्रे से दो सौ वर्षो तक अरबों का सैलाब भारत भूमि पर नहीं आ सका । 712 ई. मेंं मुहम्मद बिन कासिम ने सिन्ध के राजा दाहिर (चच का पुत्र) को हरा दिया । इस तरह वहाँ पर अरबों का आधिपत्य हो गया । इसके बाद 834 ई. मेंं बगदाद के खलीफा ने सिन्ध के मुहम्मद बिन उसमान से मिलकर सिंध के जाटों पर धावा बोला और जाटों की वहाँ पराजय हो गयी।
फिर 1008 ई. मेंं महम्मूद गजनवी ने पंजाब पर आक्रमण किया तब गक्खड़ जाटों के कारण उसकी सेना को भारी हानि हुई। 1025 ई मेंं जब गजनवी सोमनाथ लूट कर वापिस जा रहा था तब लूट के माल को उससे जाटों ने छीन लिया था। इससे क्रोधित महमूद ने 1027 ई. मेंं सिंध के जाटों के खिलाफ सुनियोजित हमला किया । तब, ‘काते - अकबरी इलियट’ द्वारा उद्धृत मतानुसार, उस युद्ध मेंं 60,000 से अधिक जाट वीर मारे गये थे। महम्मूद के अत्याचारों से प्रताड़ित अधिकतर जाट सिंध व पंजाब से मरुप्रदेश की तरफ आ गये जो गंगानगर, बीकानेर व चुरू क्षेत्र मेंं बस गये। मुहम्मद गौरी ने 1175 ई. मेंं भारत पर आक्रमण किया तथा दिल्ली व कन्नौज पर अधिकार कर लिया था। 1192 ई. मेंं तराइन के द्वितीय युद्ध के बाद गौरी के अत्याचार बढ़ गये और 1195 ई. मेंं जाटों की सर्व खाप ने गौरी के खिलाफ सेना खड़ी की। 1206 ई. मेंं मुहम्मद गौरी स्वयं पंजाब आता है तब पंजाब के खोखर जाटों से युद्ध होता है, लेकिन खोखर उस युद्ध मेंं हार जाते हैं। तब फिर जाटों का पलायन मरुप्रदेश की तरफ होता है। कई खोखर जाट फिर भी सिंधु नदी के आस - पास रह जाते हैं। जब मुहम्मद गौरी वापिस गजनी की तरफ लौट रहा था तब खोखर जाटों के नेता रायसाल के नेतृत्व मेंं गौरी के काफिले पर हमला कर 15 मार्च 1206 ई. को गौरी को मार डाला । जिसे कोई राजपूत राजा नहीं मार सके उसे जाटों ने मौत की नींद सुला दिया। डॉ. के.आर. कानूनगो ‘हिस्ट्री आफ जाट्स’ मेंं उल्लेखित है कि भारत के जाटों ने अरब से आने वाले आक्रमण कारियों का हमेंशा डटकर मुकाबला किया लेकिन उनके पास संगठित सेना का अभाव था इसलिए लम्बी लड़ाई नहीं लड़ पाते थे। भारत के पश्चिम मेंं मूलतः जाट ही बसते थे इसलिए उनको मुस्लिम आक्रमण कारियों से लगातार उत्पीड़न -झेलना पड़ा, परिणाम स्वरूप बड़ी संख्या मेंं जाटों का वहाँ से विस्थापन हुआ तब मारवाड़ व अन्यत्र मरुप्रदेश मेंं तीन तरफ से जाट आए, सिन्ध - सतलज व पंजाब। पलायन कर जाट वर्तमान के राजस्थान मेंं गंगानगर, चुरू, बीकानेर, सीकर, झुंझुनू, अलवर, भरतपुर, नागौर, जोधपुर, बाड़मेंर व जालोर आदि जिलों के भू - भाग मेंं बसे। सिंध पंजाब से विस्थापित जाटों का मरुप्रदेश मेंं आना, तीसरी सदी से 16 वीं सदी तक जारी रहा। मरुस्थलीय प्रदेश मेंं बसने के साथ ही यहाँ पर जाटों के छोटे - छोटे गणराज्य स्थापित हुए । यौधेयों को हराकर नागों ने जांगल प्रदेश (बिकानेर व नागौर) पर अधिकार कर लिया । भारशिव नागों ने तीसरी सदी से छठी सदी तक अहिच्छत्रपुर (नागौर) को राजधानी बना मारवाड़ पर राज स्थापित किया। छठी से आठवीं सदी तक यहाँ पर गूजरों का आधिपत्य हो जाता है। 11 वीं सदी मेंं मारवाड़ व किशनगढ़ के बड़े भू - भाग पर धौल्या गोत्र के जाटों का शासन रहा। तेजाजी के वंशज धौल्या नागवंश के थे, यहाँ पर काला नागवंशी भी थे। अलग. अलग क्षेत्रों (मारवाड़) मेंं जोहिया व बलहारा जाटों के राज्य भी थे। रोज गोत्र के जाटों का भी कई भागों पर प्रभुत्व था। इस वंश के छाजूजी रोज प्रसिद्ध थे। इनके गाँव छाजोली व कठौथी मुख्य थे।
मारवाड़ की प्राचीन राजधानी मण्डोर थी। माना जाता है कि सबसे पहले मण्डोर पर नागज जाट वंश का शासन था। 600 ई. मेंं इस पर प्रतिहारों का शासन स्थापित हुआ। 1226 ई. मेंं कुछ समय के लिए यहाँ पर मुस्लिम शासक भी रहे। फिर 1294 ई मेंं जलालुद्दीन खिलजी ने मण्डोर को अपने अधीन कर लिया था। फिर से प्रतिहारों का आधिपत्य हो गया। 1405 ई मेंं राठौर वंश के राव चुण्डा ने मण्डोर को अपने अधीन कर राठौर वंश का शासन स्थापित किया। स्थापना से लेकर 1458 ई. तक राठौड़ों ने मण्डोर को अपनी राजधानी रखा। इसके बाद राठौड़ वंश के राव जोधा ने मण्डोर से आठ मील पश्चिम मेंं अपनी राजधानी 1459 ई. मेंं एक पहाड़ी पर स्थापित की जहाँ वर्तमान मेंं जोधपुर किला है।
राजस्थान एक राजपूताना प्रदेश रहा है। इसके क्षेत्र मेंं विभिन्न रियासतों का कई सदियों तक दबदबा कायम था। प्रदेश मेंं जयपुर सबसे बड़ी रियासत थी। इसके अलावा इस राजपूताना राज्य मेंं उदयपुर, चित्तौड़, बूंदी, झालावाड़, अजमेंर, बीकानेर आदि रजवाड़ों के साथ पश्चिमी रेतीले भू - भाग जैसलमेंर को छोड़कर मारवाड़ यानी जोधपुर मेंं राठौर वंश की रियासत थी। जो मारवाड़ स्टेट के नाम से जानी जाती थी। प्रदेश के पूर्व मेंं भरतपुर और धौलपुर रजवाड़ें जाट राजाओं के थे। मारवाड़ की सीमा इस प्रकार थी - पूर्व मेंं जयपुर तथा किशनगढ़ का राज्य, अग्नि कोण मेंं अजमेंर - मेंरवाड़ और मेंवाड़, दक्षिण मेंं सिरोही और पालनपुर, पश्चिम मेंं कच्छ और समुद्र की खाड़ी और सिन्ध, वायव्य कोण मेंं जैसलमेंर तथा उत्तर दिशा मेंं बीकानेर का राज्य मारवाड़ की सीमा था। इस स्टेट मेंं 22 परगने थे, मारवाड़ राज्य का शासन संचालन जोधपुर दरबार के अधीन था। महाराजा के अधीन मारवाड़ के गाँवों पर सामन्तों, जागीरदारों व जमीदारों का वर्चस्व था और यहाँ की जनता सामन्तवाद के शयाकंजे मेंं जबरदस्त कसी हुई थी। मारवाड़ के समस्त 4500 गाँव बाईस हुकूमतों के अन्तर्गत राजशाही शासन सूत्र मेंं बँधे थे तथा छोटे - मोटे लगभग 1400 जागीदार थे। राजाओं के आधिपत्य मेंं अनेक छोटी - बड़ी जागीरें कायम थीं। जागीरदारों को ठाकुर व सामन्त कहा जाता था। जोधपुर अथवा मारवाड़ राज्य की उत्पत्ति के विषय मेंं अनेक मत हैं।
मारवाड़ मरु और माड़ दो शब्दों से मिलकर बना है मरु और माड़ अपने भिन्न - भिन्न नाम से प्रसिद्ध हैं। जैसलमेंर का देश मांड और उसके पूर्व का प्रदेश मरु कहलाता है। जिसमेंं मालाणी प्रदेश सम्मिलित है। मरु और माड़ दोनों प्रदेश की सीमा परस्पर मिली हुई है जिससे मारवाड़ संयुक्त शब्द बना। उसी मारुमाड़ शब्द का तद्भव रूप मारवाड़ शब्द है। संस्कृत भाषा मेंं मारवाड़ देश का नाम मरु मिलता है।
मारवाड़ को मरुधर देश भी कहा जाता है। मरुधरा शब्द मरुधर का तद्भव शब्द है। वर्तमान मेंं जोधपुर संभाग का क्षेत्र मारवाड़ के नाम से प्रसिद्ध है। तत्कालीन मरुधर मेंं धन्व देश शामिल थे, जो मरुदेश के दक्षिण व पूर्व मेंं स्थित रहे जालोर, बिलाड़ा, भीनमाल. पाली, सोजत, जैतारण, गोड़वाड, परबतसर और डीडवाना इत्यादि धन्व प्रदेश थे और शेखावाटी, बीकानेर, नागौर, फलोदी, मालानी आदि बालूमय प्रदेश मरु कहलाए गए।
मारवाड़ 24 अंश 37 कला उत्तर तक, 70 अंश 6 कला पूर्व देशन्तर मेंं, 71 अंश 22 कला पूर्व देशन्तर पर स्थित भू - भाग को माना गया है। यह विस्तार अन्य राज्यों व क्षेत्रों की अपेक्षा अधिक था। इसकी लम्बाई 320 मील व चैडाई 170 मील था, जिसका जमीनी क्षेत्रफल 3506 वर्गमील था, जो राजशाही अधिकार और जागीरी अधिकार मेंं विभाजित था।
18 वीं सदी के प्रारम्भ मेंं औरंगजेब ने जोधपुर राज्य को अपने अधीन कर लिया था किन्तु 1707 ई. मेंं औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात् यहाँ के राजा अजीत सिंह ने फिर से जोधपुर पर अधिपत्य स्थापित कर लिया। 1818 मेंं जोधपुर रियासत ने अग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर ली। इसके बाद मारवाड़ की जनता पर तिहरी शासन व्यवस्था लागू हो गयी - जोधपुर दरबार, जागीदार व अंग्रेज। जागीरी गाँव मेंं प्रशासन के लिए गाँव चौधरी, हवलदार, कंणवारिया और गाँव भांभी प्रमुख होते थे। जागीरदार किसानों से लाट लटाई, कूंता, कांकड़, मुकाता, गूगरी, बिनगूगरी, बिगोड़ी लगान लेते थे। इनके अतिरिक्त अनेक अन्य प्रकार की लाग बाग भी वसूली जाती थी। प्रो. आर.पी. व्यास के मतानुसार मारवाड़ रियासत का इतिहास सामन्ती संस्थाओं के आधिपत्य का इतिहास रहा है। इन सामन्ती ठिकानों को प्रथम, द्वितीय व तृतीय श्रेणी के दण्ड नायक के अधिकार प्राप्त थे।
अधीनस्थ सामन्त जोधपुर महाराजा के हुक्म के कायल होते थे। इस विस्तृत भू - भाग के गाँवों, कस्बों मेंं विभिन्न जातियों का अस्तित्व था, जिसमेंं जाट, राजपूत, गुर्जर, माली, सीरवी, कलबी, नाई, दर्जी, सुथार, सुनार, मेंघवाल, चमार, नायक, राजपुरोहित, भील, ब्राह्मण, जैन, घांची आदि शामिल थे। इनमेंं से कुछ कौमेंं जैसे जाट, गुर्जर, माली, सिरवी, कलबी, रेबारी इत्यादि खेती व पशु पालन धन्धे से जुड़ी थीं। गाँवों मेंं बसने वाली जातियों मेंं सर्वाधिक संख्या जाट किसानों की रही। आधुनिक मारवाड़ मेंं कहीं - कहीं गाँवों मेंं तो इस जाति को न्याय करने का विशिष्ट दर्जा प्राप्त था। जैसे -झंवर के जाट अपनी न्यायप्रियता के लिए उच्च पद प्राप्त थे। नागौर परगने मेंं कुचेरा गाँव के राड़ जाटों को सामन्ती दर्जा मिला हुआ था। यहाँ के रामरख राड़ (बलदेवराम मिर्धा के दादा) जोधपुर दरबार मेंं बख्श के पद पर नियुक्त थे। इनको जोधपुर स्टेट की ओर से सिंधलास गाँव जागीर मेंं दिया हुआ था। भाकरोद गाँव के भाकल गोत्र के एक परिवार मेंजर मगनी रामजी के पूर्वजों को भी जागीरी का एक गाँव लटाई मेंं दिया हुआ था। रतकुड़िया गाँव के चौधरी गुल्लाराम जी का नाम भी जोधपुर स्टेट मेंं आदर व सम्मान की दृष्टि से लिया जाता था। मूण्डवा मारवाड़ गाँव के तुलछाराम जी सदावत को दरबार की ओर से सम्मान पद की गरिमा प्राप्त थी। इन जाट किसान परिवारों को समस्त मारवाड़ के गाँवों मेंं साधन सम्पन्न व धनी परिवार माना जाता था।
मारवाड़ के दुर - दराज के गाँवों मेंं बसने वाली जातियाँ खेती व पशु पालन व्यवसाय से जुड़ी थीं। ये जातियां जोधपुर स्टेट की जमीन पर काश्त कर अपने उत्पादन का आधा हिस्सा हासिल के रूप मेंं सामन्तों को दिया करती थीं। ऐसी परम्परा सदियों से चली आ रही थी। इसके अतिरिक्त कई पिछड़ी जातियों का काम मजदूरी करना व सामन्तों की बेगार करना प्रमुख था। सामन्ती शासन की निरंकुशता को सहना मारवाड़ के ग्रामीण समाज की शताब्दियों से विवशता थी।
स्वाधीनता आन्दोलन के मध्य देश के सभी अंचल आजादी की भावना से गूँज उठे थे। इस भावना से मारवाड़ अंचल भी अछूता नहीं रहा। मारवाड़ मेंं सर्वप्रथम दोहरी गुलामी के विरुद्ध बगावत का झंडा श्री जयनारायण व्यास के नेतृत्व मेंं उठा तथा मारवाड़ राज्य मेंं राजनीतिक व सामाजिक नवचेतना का शुभारम्भ हुआ। श्री जयनारायण व्यास ने सन् 1938 मेंं मारवाड़ हितकारिणी सभा के तत्वाधान मेंं मारवाड़ मारवाड़ लोक परिषद का प्रथम अधिवेशन बुलाया। स्वतंत्रता संघर्ष का यह पहला जन आंदोलन था। इससे नाराज होकर, अधिवेशन पर ब्रिटिश हुकूमत ने पाबन्दी लगा दी और शासन ने जयनारायण व्यास, उनके सहयोगी कार्यकर्ता आबदराज सुरान व भंवरलाल सर्राफ को गिरफ्तार कर नागौर जेल मेंं बन्द कर दिया। इन पर मुकदमा चलाया गया। मुकदमें मेंं श्री जयनारायण व्यास को छह साल का कारावास व अन्य आन्दोलन कारियों को पाँच - पाँच वर्ष की सजा दी गयी। लेकिन तीन वर्ष पश्चात इन आन्दोलन कारियों को रिहा कर दिया गया। मुक्त होने के बाद भी इनकी क्रान्तिकारी गतिविधियाँ रुकी नहीं तथा शासन की नींद हराम होती रही।
वैसे मारवाड़ किसानों विशेषकर जाटों मेंं जागृति की शुरूआत 1925 ई. मेंं अखिल भारतीय जाट महासभा के पुष्कर अधिवेशन मेंं भरतपुर के तत्कालीन जाट महाराजा कृष्णा सिंह की उपस्थिति मेंं हो गयी थी। इस अधिवेशन से मारवाड़ व शखावाटी के किसानों मेंं सामन्ती अत्याचारों का विरोध करने का हौसला पैदा हुआ।
मारवाड़ के सपूत चौधरी गुल्लाराम एवं मूलचन्द सियाग (नागौर) ने 1921 मेंं सर छोटूराम से प्रभावित होकर शिक्षा के महत्त्व को समझा तथा फिर पुष्कर अधिवेशन पश्चात चौधरी गुल्लाराम ने रातानाड़ा स्थित अपने मकान मेंं ही चौधरी मूलचन्द सिहाग (नागौर), चौधरी भींयाराम सिहाग (परबतसर), चौधरी गंगाराम खिलेरी, बाबू दूधाराम और मास्टर धारा सिंह की मीटिंग 27 मार्च 1927 को की। इसमेंं निर्णय लिया - “ पढ़ो और पढ़ाओ ”। इसी के तहत 04 अप्रैल 1927 को गुल्लाराम जी ने अपने घर मेंं ही जाट बोर्डिंग हाऊस जोधपुर की स्थापना की। फिर बल्देवराम मिर्धा ने 1929 मेंं सूरतराम जी महाराज के नागोरी गेट के अन्दर स्थित रामद्वारे को मात्र 10,000 मेंं खरीद किसान बोर्डिंग हाऊस की स्थापना की। इस तरह किसान वर्ग मेंं शिक्षा का संचार हुआ।
शिक्षा की अलख के साथ जाट समाज मेंं सामाजिक उत्त्थान की आवशयकता भी जरूरी थी। अतः मारवाड़ किसान आन्दोलन को गति प्रदान करने हेतु 22 अगस्त 1938 को परबतसर मेंले मेंं “मारवाड़ जाट कृषक सुधार सभा” का गठन किया गया। इस सभा के प्रधानमंत्री चौधरी मूलचन्द, गुल्लाराम चौधरी अध्यक्ष व चौधरी भींयाराम सिहाग कोषाध्यक्ष चुने गये। शिक्षा के माध्यम से किसान जागृति से मारवाड़ के जागीरदार बौखला गये तथा किसानों पर अत्याचार बढ़ गये। इन अत्याचारों का संगठित प्रतिरोध करने हेतु बलदेवराम मिर्धा ने पहल की। 27 जून 1941 को सुमेंर स्कूल जोधपुर मेंं विशाल किसान सम्मेंलन आयोजित कर ‘मारवाड़ किसान सभा’ का गठन किया गया। इतिहासकार डॉ.पेमाराम के अनुसार मंगलसिंह कच्छावाहा इस सभा के प्रथम अध्यक्ष चुने गये।
मारवाड़ स्टेट के शहरों, कस्बों मेंं मारवाड़ लोक परिषद् एवं गाँवों मेंं किसान सभा ने राजनीतिक दृष्टि से साझा मोर्चा बनाकर देश की दोहरी गुलामी के विरुद्ध बगावत शुरु की। ब्रिटिश हुकूमत व राजशाही शासन के अधीन मारवाड़ के गाँवों की दशा दयनीय स्थिति मेंं थी। दोहरी गुलामी से गाँवों - कस्बों के लोगों के मन मेंं जबरदस्त डर व्याप्त था। गाँवों मेंं विदेशी शासन के बजाय स्थानीय सामन्ती राज का जबरदस्त भय सताये हुए था। ग्रामीण किसानों के उत्पादन पर जागीरदारों का जबरदस्त दखल था। राजनीतिक परतंत्रता के साथ समस्त ग्रामीण सामाजिक क्षेत्रों मेंं अत्यन्त पिछड़े हुए थे। अज्ञानता व निरक्षरता ग्रामीण जन की मुसीबतों के स्पष्ट कारण थे। मारवाड़ के गाँवों मेंं सभी धर्म, वर्ग, समुदाय के लोगों का वास था ।कड़ी मेंहनत के उपरान्त भी ग्रामीणों को नारकीय जीवन जीने की विवशता शताब्दियों से झेलनी पड़ रही थी। सामन्तों की सुख - सुविधाओं की आवशयक पूर्ति के अलावा, ग्राम वासियों को अपनी सामाजिक परम्परा का पालन भी अत्यन्त कठिन था। ग्रामीण समाज मेंं छुआछूत, बालविवाह, अशिक्षा, मृत्युभोज आदि कुरीतियाँ ग्रामीण जन की जर्जर हालत के लिए पूर्णतया जिम्मेंदार थीं। किसान सभा ने जबरदस्त ग्राम्य क्रान्ति का सूत्रपात किया। किसान सभा के संस्थापक श्री बलदेव राम मिर्धा उन दिनों पुलिस महकमें मेंं उच्च पद पर कार्यरत थे। सरकारी सेवा मेंं रहते हुए भी किसान केसरी श्री मिर्धा ने अपने गुप्त दिशा - निर्देश से मारवाड़ मेंं ग्रामीण चेतना का बड़ी कुशलता से संचार किया। किसान केसरी ने किसान सभा के जन जागरण कार्यक्रमों को सुचारु रूप से चलाने व कारगर सफलता के लिए मारवाड़ लोक परिषद की भरपूर मदद ली तथा किसान सभा के उत्साही एवं कर्मठ कार्यकर्ताओं का एक सबल संगठन भी खड़ा किया। मारवाड़ लोक परिषद व किसान सभा ने समस्त मारवाड़ मेंं किसानों की आर्थिक तथा राजनीतिक स्वाधीनता की माँगों को दूर - दराज के ग्रामों तथा कस्बों, नगरों तक पहुँचाने का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य किया। फलतः विदेशी शासन की नीतियों एवं सामन्ती क्रूर शासन की निरंकुशताओं की चर्चा मारवाड़ के गाँवों की चैपालों मेंं होने लगी थी।
भूमि के मालिक बने सामन्तों तथा जागीरदारों से मारवाड़ के किसान बुरी तरह प्रताड़ित थे ।जमींदार जनता की स्वाधीनता की चेतना को अनेक प्रकार की चुनौतियाँ दे रहे थे। उनकी मान्यता थी ‘ढालों ने जा ठल्ल, कणा उतारा ठाकरा, जीता सिंह खदळ‘ इसका अर्थ है कि यह भूमि हमारी है, हमने इसे भाले की नोंक और ढाल के सहारे प्राप्त किया है। इसको हमसे कौन प्राप्त कर सकता है। ऐसा कौन है, जो जीवित सिंह की खाल उतारने का साहस कर सके।
प्रत्येक जागीरी हल्के मेंं सामन्ती प्रबुद्ध अपने स्रोतों के अनुरूप एक स्थायी भवन रखता था। उसमेंं आवासीय खण्ड के अलावा ठिकाना, प्रशासकीय इकाइयों और न्यायालयों के कार्यालय आवशयक रूप से हुआ करते थे। जब ये जागीरदार व सामन्त भवन के बाहर निकलते तब उपस्थित जन समुदाय जमीन की ओर झुक कर अभिवादन किया करते थे। अभिवादन के समय कहा जाया करता था ‘‘खम्मा खम्मा अणदाता‘‘ (अन्न देने वाले गलती हो गयी हो तो माफ करना) यानी अन्नदाता वास्तविक किसान तो गुलामी का जीवन जी रहा था।
रियासती क्षेत्र की समस्त भूमि पर सामन्तों का पूर्ण स्वामित्व था। काश्त करने वाले व खेत जोतने वाले कृषक किसी भी वक्त जागीरदार की आँखों के संकेत मात्र से जमीन तथा घर गाँव से बेदखल हो जाया करते थे। जातीय आधार पर गठित सामाजिक व्यवस्था मेंं अनेक बुराइयाँ पनप गयी थी। प्रो. अनिल भट्ट ने इसे संस्थागत असमानता का स्वीकृत सामाजिक स्वरूप माना है। जाति वर्ग से ही उसके सम्पूर्ण जीवन का आधार व स्वरूप ज्ञात होता था। उसकी शिक्षा, अर्थव्यवस्था, उसका राजनीतिक स्तर एवं उसके विशेषाधिकार जातिस्तर परम्परागत प्रतिष्ठा से ही आँके जाते थे। उच्च जाति के लोग उच्च राजनीतिक अधिकार प्राप्त थे। मध्यम, उच्च व निम्न वर्ग की जातियों को उनके स्तर अनुरूप अधिकार प्राप्त थे। राजपूत, ब्राह्मण, महाजन व कायस्थ उच्च जातियों मेंं थे।
मारवाड़ रियासत मेंं सामन्ती प्रथा होने से भूमि, धन व पद केवल राजपूत, महाजन व ब्राह्मण जातियों को प्राप्त थे। सामाजिक दृष्टि से ये जातियाँ उच्च वर्ग तथा सम्मानित मानी जाती थी। राजपूत कृषि भूमि के स्वामी थे, महाजन साहूकारी प्रवृत्तियों से जुड़े थे। ब्राह्मण व पुरोहित वर्ग शिक्षा, राजपद व सामाजिक व धार्मिक अनुष्ठानों से कुछ ज्यादा ही सम्मानित थे। प्रायः समाज की समस्त जातियों मेंं पुरोहित. ब्राह्मण का उच्च महत्त्व था। दूसरी जातियाँ खेती व अपने पुश्तैनी व्यवसायों मेंं लगकर जीविकोपार्जन करती थीं। जाट, सिरवी, गुजर, कलवी, माली इत्यादि कौमेंं खेती व पशु पालन धन्धे मेंं थी। हालांकि खेती की जमीन पर इन जातियों का स्वामित्व नहीं था। साहूकारों के कर्ज का शिकंजा, सामन्तों की बेगार एवं मनचाही लूट व प्रकृति प्रकोप आदि ने किसानो के जीवन को अत्यन्त समस्या ग्रस्त, कष्टमय तथा दुर्दान्त गरीबी मेंं धकेल रखा था। ऐसी विकट परिस्थितियों के कारण सामन्तों एवं उनके द्वारा शोषण निम्न जातियों के बीच वर्ग - संघर्ष की भावना जन्म लेती जा रही थी। काश्त कारों के अतिरिक्त गाँवों मेंं अन्य जातियां कुम्हार, नाई, दर्जी, मोची, सुनार, मेंघवाल, नायक, भंगी इत्यादि पिछड़ी/अनुसूचित जातियां मारवाड़ रियासत मेंं आबाद थीं। इन जातियों का भी भारी शोषण होता था। इन जातियों के लोगों को भी सामन्तों - जागीरदारों को कई तरह की लाग, बाग, बैठ - बेगार देनी पड़ती थी। मारवाड़ रियासती जमाने मेंं मुख्य रूप से 136 प्रकार की लाग - बेगारें ली जाती थीं।
सत्ता और पूँजी के गठबंधन से जनित असमानता और सामाजिक भेदभाव की स्थिति मेंं सामन्ती परम्पराओं को जनतंत्रीय व्यवस्था मेंं बदलने के उद्देशय से मारवाड़ मेंं मध्यम वर्ग के किसान हितैषी ब्राह्मणों व महाजनों और कृषक वर्ग के प्रबुद्ध लोगों ने शोषण के विरुद्ध जन जागरण का कार्य प्रारम्भ किया था। मारवाड़ लोक परिषद् से अनुप्रेरित होकर नागौर जिले से शवदयाल दवे इस क्षेत्र की केन्द्र भावना के रूप मेंं उभरे थे। उनके साथ नागौर जिले से श्री जोरावर सिंह ओसवाल, कुचामन के श्री किशन लाल साह और माणकचन्द कोणरी एवं सरीमल डीडवाना से तुलसीराम, ग्राम कोलिया से श्री कृष्ण पंडित, लाडनू से सुखदेव दीपंकर आदि मारवाड़ परिषद् के कर्मठ कार्यकर्ता थे। श्री जयनारायण व्यास के मार्गदर्शन से जोधपुर के युवा नेता मथुरादास माथुर जन आन्दोलन मेंं अग्रणी रहे। इन कार्यकर्ताओं के अदम्य साहस व कुशल नेतृत्व से मारवाड़ मारवाड़ लोक परिषद् के जन जागरण को तीव्र गति मिली फलतः स्थानीय लोग जाग्रत हो उठे। उनके नारे थे -
‘जागीरदारी प्रथा बन्द हो, इन्कलाब जिन्दाबाद‘
‘खादी पहनो, देश जगाओ
सामन्तवादी व्यवसथा के साथ मारवाड़ के ग्रामीण समाज मेंं अनेक बुराइयों - कुरीतियों का जबरदस्त प्रभाव था। जिनमेंं ओसर - मोसर न्यौता, छुआछूत, जाति - पांति, ऊँच - नीच, बाल विवाह इत्यादि सामाजिक बुराइयाँ भी अभिशाप थीं। सामाजिक बदलाव व नई चेतना के लिए सर्वप्रथम किसान केसरी श्री बलदेवराम मिर्धा ने शैक्षणिक जागृति पर विशेष जोर दिया। आपने सरकारी सेवा मेंं रहते हुए भी सन 1941 मेंं ‘मारवाड़ किसान सभा’ की स्थापना करके राजशाही व सामन्तों को विस्मय मेंं डाल दिया। मारवाड़ किसान सभा के माध्यम से ग्रामीण समाज की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक प्रगति का मार्ग प्रशस्त करना किसान केसरी की दूरदृष्टि का ही परिणाम था। किसान सभा ने ग्रामीण जागरूकता का बीड़ा उठाया तथा मारवाड़ अंचल के दूर दराज के गाँव - गाँव, ढाणी - ढाणी तक सामन्ती कुकृत्यों का भण्डाफोड़ किया। इस जन जागृति अभियान से मारवाड़ के ग्रामीण अंचलों मेंं क्रान्ति की पहली भूमिका जगने लगी व जन चेतना का स्वर गूँजने लगा।
मध्य काल के दौरान मारवाड़ के जाटों मेंं अनेक लोक देवता, संत व भक्त शरोमणि हुए। सत्यवादी, वचन पालन करने वाले गोरक्षक वीर तेजाजी जैसे लोक देवता हुए तो दूसरी तरफ जाट समाज की महिलाएँं भक्त शरोमणि हुई। इनमेंं राणाबाई, करमाबाई, फूलांबाई भक्तिकाल के प्रसिद्ध नाम है। आधुनिक काल मेंं खेमा बाबा भक्त युगपुरुष हुए । इसी तरह दानवीरों मेंं जायल व खिंयाला के यशस्वी जाट बनधुओं धरमोजी व रामगोपाल जी की यशो - गाथा विवाह के माहेरों के गीतों में गाई जाती है। न्याय के मामले में गाँव -झंवर (जोधपुर) के कालीराणा जाट प्रसिद्ध थे। जिनके न्याय को जोधपुर दरबार से मान्यता प्राप्त थी।
तेजा जी का जन्म गांव खरनाल परगना नागौर मेंं हुआ था। वे धौल्या गौत्र के जाट थे। जाट इतिहास के विद्वान लेखक ठाकुर देशराज का मत है कि तेजा जी का जन्म वि.सं 1040 मेंं हुआ था तथा बलिदान मार्ग सुदी दशमी वि.स. 1072 हुआ था। इतिहास कार डॉ. पेमाराम ने बही भाट भैंरू (डेगाना) के आधार पर उनका जन्म वि.स 1130 मेंं होना बताया है। उनके पिता का नाम ताहड़जी व माता का नाम रामकुंवरी था। डॉ. पेमाराम के अनुसार उनका बलिदान भादवा सुदी दशमी को हुआ था। तेजाजी का विवाह पनेर नामक गाँव के रायमलजी जागी (भांकर) की पुत्री पेमल से हुआ था।
भैंरू भाट की बही मेंं तेजाजी की वंशावली दी हुई है। यह वंश महाबल का था तथा तेजाजी के दादा बोहितराज थे | पिता ताहड़देव के छः पुत्र थे तथा दो पुत्रियाँ राजल व भोंगरी। राजल का विवाह जोराजी सिहाग के साथ हुआ जबकि भोंगरी अविवाहित रही।
11 वीं सदी मेंं छोटे राज्य थे और उस समय मारवाड़ मेंं भी कई नागवंशी जाटों के राज्य थे। नागौर नागवंशी जाटों की प्राचीन भूमि थी। ठाकुर देशराज की मान्यता है कि तेजाजी के पिता ताहड़जी खड़नाल जनपद के गणपति थे। तेजाजी का विवाह बाल्यकाल मेंं ही पनेर के गणपति रायमल जी जागी की पुत्री पेमल से हो गया। तेजा जी के ससुर व पत्नी के नाम को लेकर इतिहासकारों मेंं मतभेद रहा है। परन्तु भाट बही के अनुसार उपर्युक्त नाम ही सही प्रतीत होते हैं जो लोक साहित्य से भी मेंल खाते हैं।
नागवंशी जाट शासक पशु पालक रहे थे अतः तेजाजी के यहाँ पर भी बड़ी संख्या मेंं गायें थीं। तेजाजी उस समय के अस्त्र - शस्त्र चलाने मेंं माहिर थे पर साथ ही ईशवर भक्ति भी करते थे अतः तेजाजी के जीवन से जुड़ी कई कथाएँ हैं जो तथ्यात्मक एवं रोचक भी हैं। तेजाजी की घोड़ी का नाम लीलण था। लोक गीतों मेंं लीलण का नाम कई बार आता है इसी तरह लोक गीत मेंं तेजाजी की भाभी का ताना भी “ लालजी परणी लिओ भातो वेगो लावसी, थारी तो परणी बैठी बाप के।” बहन राजल का भी लोकगीतों मेंं वर्णन खूब है।
गोगाजी की भांति तेजाजी ने अपना जीवन गायों की रक्षा हेतु बलिदान कर दिया था। लाछा गूजरी की गायों को मीणों (मेंरो) से वापिस लाने के लिए युद्ध किया और गायें वापिस लाये परन्तु वे इस युद्ध मेंं गम्भीर घायल हो गये। अपनी जबान के धनी, अन्याय के खिलाफ लड़ने वाले वीर तेजाजी निर्बल व असहायों के संरक्षक माने जाते हैं।
लोक साहित्य से पता चलता है कि सुसराल जाते समय तेजाजी को नाग (बालू) अन्य शासक ने रास्ते मेंं मिला जो तेजाजी से दुशमनी रखता था। वहाँ पर लड़ाई टालने के लिए तेजाजी ने बालू को वचन दिया कि ससुराल से पत्नी को लेकर वह इसी रासते वापिस आयेगा तब तुम से लड़ाई कर लूँगा। बालू ने उसे जाने दिया। लोक साहित्य मेंं यह कथा आती है कि मेंरों से गायों छुडाने के दौरान गम्भीर घायल हो जाते हैं फिर वे पेमल को लेकर वापिस रवाना होते हैं तब बालूनागों से सामना होता है। घायल होते हुए भी तेजाजी बड़ी बहादुरी से लड़ते है परन्तु आखिर वे मारे जाते हैं और पेमल सती हो जाती है। सती होते समय पेमल कहती है -
माया रे उत्तरता भादूड़री नवमी की रात जगवज्यो,
दसम ने धौकज्यो धौल्या री देवली। काचा दूधरो भोग लगाज्यो।
थारा मनपसन्द कारज सिद्ध हो सी। आही म्हारी अमर आशीष है। तेजाजी की लोकगाथाओं में सर्पदंश की भी एक गाथा है। तेजाजी जब ससुराल पेमल को लेने जा रहे थे तो एक साँप (नाग) अग्नि मेंं जल रहा था यह देख तेजाजी ने उसे बचा लिया। इसी आग से उसकी नागिन जलकर मर गयी थी। साँप को श्राप था और उससे मुक्ति सिर्फ जल कर मरने से होती अतः साँप तेजाजी पर क्रोधित होता है और डसना चाहता है। तब तेजाजी उससे कहते हैं मैं अभी ससुराल पत्नी को लेने जा रहा हूँ वापिस मैं तुम्हारे पास आऊँ तब डस लेना। यह वचन देकर तेजाजी पनेर चलेे जाते हैं। जैसा कि ऊपर वार्णित गाथा मेंं बताया गया कि तेजाजी मेंरों से गूजरी की गायें वापिस लाने जाते है वहाँ पर मेंरो के साथ युद्ध मेंं गम्भीर घायल हो जाते हैं। फिर भी वे साँप के दिये वचन को निभाने पुनः साँप के पास आते हैं और कहते है कि अब तू मुझे डस सकते हो तो साँप कहता है तुम्हारा शरीर घावों से भरा है कहाँ पर डसूँ? तब तेजाजी साँप को अपने भाल्ले से ऊपर लाते है और जीभ निकाल कहते है, "यहाँ पर डसो यह घायल नहीं है"। उनके साहित्य व मृत्यु से जुड़ी कई और भी लोक गाथाएँ हैं।
वैसे मूल ऐतिहासिक सत्य यह है कि नागबालू वंश जाति के लोग अत्याचारी थे। जिनके उत्पातों से जनता दुखी थी। तेजाजी व उनके परिवार ने वीरता तथा साहस से उनको वहाँ से बलपूर्व निष्कासित कर लोगों को भय मुक्त किया। विभिन्न लोकगाथाओं से ज्ञात होता है कि तेजाजी की वीरता, त्याग, वचनद्धता गौरक्षक ने उन्हें देवत्व प्रदान किया जो कालान्तर मेंं आस्था पूजा के रूप मेंं परिवार्तित हो गई और तेजाजी मारवाड़ के साथ साथ हाड़ौती, ढूंढाड़ (ब्यावर, प्रतापगढ़, चितौड़गढ़) आदि के साथ - साथ मालवा तक लोक देवता के रूप मेंं पूजे जाते हैं। राजस्थान व अन्यत्र प्रायः हर गाँव मेंं इनके थान व देवरे बने हुए हैं जहाँ पर तेजाजी की मूर्ति या तस्वीर अश्वारोही रूप मेंं हाथ मेंं भाला व भाले के सहारे जीभ डसता साँप दशार्या होता है। नागदेवता के साथ तेजाजी को कृषि देवता के रूप मेंं मान्यता है। तेजाजी से सम्बधित लोकगीतों व लोक गाथाओं का विशाल लोक साहित्य है। तेजाजी पर साहित्य मेंं लज्जाराम शर्मा कृत भूंजर तेजा, व्यास सूर्यराज शर्मा कृत वीर तेजा, रामगोपाल शिवराम राव रचित तेजलीला, कवि अम्बालाल का लिखा वीरवर जाट तेजाजी, वंशीधर शर्मा रचित तेजाजी का ब्यावला आदि महत्वपूर्ण है। डॉ. पेमाराम द्वारा लिखित जाटों की गौरव गाथा मेंं भी तेजाजी पर अहम जानकारी दी गयी है।
प्रतिकूल परिस्थितियाँ और चुनौतियों से मुकाबला कर जीत की जिद के साथ आगे बढ़ने वाली शक्सियतें सही मायने में दमदार और असरदार होती हैं। ऐसी हस्तियाँ अपने आसपास के माहौल मेंं खास बदलाव लाने के लिए सार्थक पहल करती हैं। स्मरण करते हैं हम बीते जमाने के उन-शिक्षा - सेनानियों व समाज - सुधारकों को जिनके तप और त्याग की बदौलत आज हम अपना कुछ वजूद कायम कर सके हैं।
खुदगर्जी के दायरों को ध्वस्त कर, अपने परायों का भेद मिटाकर आमजन के हित को सर्वोपरि स्थान देने वाले वो लोग कमाल के थे। गजब का हौसला और हिम्मत थी उनमेंं। कृषक कौम की बदहाली की कसक उनके दिल मेंं थी। सोई हुई कौम को जगाया। उनकी दारुण दशा का असली कारण समझ और उनको उनकी जुबान मेंं समझाया भी। अँधेरे से उजाले की तरफ जाने वाला रास्ता दिखाया, उस पर समाज को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया। अज्ञानता के अँधेरे मेंं डूबी और शोषण की त्रिस्तरीय चक्की मेंं पिसती किसान कौम की मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया। अशिक्षा, कुरीतियों व शोषण के दलदल मेंं फंसे किसान वर्ग को बाहर निकालने की दिशा मेंं सार्थक प्रयास किए। जो संकट मेंं सदैव मार्गदशर्क की भूमिका मेंं मौजूद रहते थे।
मारवाड़ के देहाती इलाके मेंं पसरे अशिक्षा के अँधेरे को परास्त कर शिक्षा के जरिए चेतना जाग्रत करने एवं भावी पीढ़ियां के सुनहरे भविष्य का मार्ग प्रशस्त करने की दिशा मेंं अतुलनीय योगदान देने वाली हस्तियों मेंं पाँच नाम प्रमुख हैंः बलदेवराम जी मिर्धा - जोधपुर, चौधरी गुल्लाराम बेंदा - जोधपुर, मूलचन्द सिहाग - नागौर, चै. रामदान डऊकिया - बाड़मेंर और चै. भींयाराम सिहाग - परबतसर (नागौर) । औरों का जीवन सँवारने को अपने जीवन का मिशन बनाने वाली इन महान विभूतियों के कर्म प्रधान जीवन से बहुत कुछ सीखा जा सकता है।
मारवाड़ मेंं किसान जागृति के प्रेरणास्रोत किसान केसरी श्री बलदेवराम जी मिर्धा के कृत्य स्वर्णाक्षरों मेंं लिखने योग्य हैं। मारवाड़ मेंं आजादी से पूर्व जागीर प्रथा के चलते किसान का भूमि (जोत/खेत) पर अपना अधिकार नहीं था। जागीरदारों के अत्याचार चरम सीमा पर थे तथा फसल पैदावार का आधा भाग भूमिकर के रूप मेंं जागीरदार लेते थे। इसके अलावा सैकड़ों तरह की लागबाग भी किसानों से वसूली जाती थी। जागीरदारी मेंं किसानों को शिक्षा की कोई सुविधा नहीं थी और विशेषकर जयाकर जागीरदार जाटों को शिक्षा से वंचित रखते थे।
ऐसे समय मेंं राजस्थान के नागौर जिले के कुचेरा गाँव मेंं चौधरी मंगलाराम जी राड़ के घर 17 जनवरी 1889 को एक बालक का जन्म हुआ जिसका नाम बलदेवराम रखा गया। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा गाँव मेंं ही हुई। बलदेवराम जी के दादा रामरख जी राड़ जोधपुर दरबार मेंं बख्शी (डाक विभाग) के पद पर नियुक्त थे इनके परिवार को जोधपुर दरबार की तरफ से मिर्धा के नाम से उपाधि प्रदान थी। साथ ही इस परिवार को सिंथलास गाँव जोधपुर दरबार से जागीर मेंं मिला हुआ था। इसलिए उनको शिक्षा प्राप्त करने मेंं कोई कठिनाई नहीं हुई। प्रारम्भिक शिक्षा के पश्चात आपकी शिक्षा जोधपुर मेंं हुई। मेंट्रिक परीक्षा 18 वर्ष की आयु मेंं उत्तीर्ण कर ली। शिक्षा पूर्ण कर बलदेवराम मिर्धा 1912 मेंं जनसंख्या विभाग मेंं राजकीय सेवा मेंं लग गये। तदुपरान्त 21 नवम्बर 1914 को पुलिस विभाग मेंं थानेदार पद पर नियुक्त हुए। कुशाग्र बुद्धि के धनी श्री बलदेवराम जी मिर्धा के कार्यों से संतुष्ट होकर तत्कालीन जोधपुर दरबार के आई.जी.पी. ने इनकी पदोन्नति 1921 मेंं इंस्पेक्टर पद पर कर दी। जोधपुर मेंं डाकुओं की समस्या से निजात दिलाने मेंं इनकी अहम भूमिका को मद्देनजर रखते हुए मार्च 1926 मेंं आपको जोधपुर एस.पी. (पुलिस अधीक्षक) पद पर नियुक्त किया गया।
जागीरदारों के अत्याचारों से पीडित किसानों मेंं शिक्षा - प्रचार - प्रसार का कार्य मूलचन्द जी सिहाग (नागौर), बाबू गुल्लाराम जी (जोधपुर), भींयाराम सिहाग (परबतसर), मास्टर धारासिंह जी व राधाकिशयान जी मिर्धा ने शुरु कर रखा था। इसी कड़ी मेंं एक छात्रावास गुल्लाराम जी के घर मेंं 1927 को शुरु किया गया। लेकिन छात्रों की संख्या बढ़ने पर बड़े भवन की आवशयकता महसूस की गई तब इन बन्धुओं ने श्री बलदेवराम जी से मिलकर समस्या के बारे मेंं अवगत कराया। किसान बच्चों की निःशुल्क शिक्षा व्यवस्था हेतु श्री बलदेवराम जी ने तत्काल अपने पास से रू 10,000 देकर नागोरी गेट (जोधपुर) स्थित रामस्नेही खेड़ापा सम्प्रदाय के सूरत राम जी महाराज के भवन को खरीद कर ‘जाट बोर्डिंग हाऊस’ जोधपुर नाम से छात्रावास स्थापित किया। इस छात्रावास मेंं विभिन्न किसान कौम के बच्चे रहने लगे जिसमेंं जाट, विशयनोई, माली, सिरवी, कुम्हार आदि प्रमुख थे। मिर्धा जी के प्रयासों से बोर्डिंग हाऊस को 1 जुलाई 1930 से 150 रू सरकारी अनुदान भी मिलने लगा। इसी शृृंखला मेंं 21 अगस्त 1930 को नागौर मेंं छात्रावास की स्थापना की गई। 1934 मेंं चौधरी रामदान जी के सहयोग से बाड़मेंर मेंं किसान छात्रावास की स्थापना हुई । छात्रावास स्थापना का यह क्रम निरन्तर आगे बढ़ने लगा। 1934 - 35 के बाद मेंड़ता, डीडवाना, मरोठ, परबतसर व रतकुड़िया मेंं भी छात्रावास की स्थापना हुई । इन छात्रावासों के निर्माण मेंं बलदेवराम जी मिर्धा के साथ बाबू गुल्लाराम जी, चौधरी मूलचन्द जी, भींयाराम जी, रामदान जी तथा मास्टर रघुवीर सिंह जी (जोधपुर जाट बोर्डिंग के प्रबन्धक) का विशेष योगदान रहा। इनके अतिरिक्त कई अन्य स्थानों पर भी छात्रावास स्थापित किये गए और साथ ही गाँवों मेंं पाठशयालाएँ भी खोली गईं। इस तरह मारवाड़ के ग्रामीण क्षेत्र मेंं शिक्षा की रोशयानी फैलने लगी। किसानों के बच्चे स्कूलों से आगे काॅलेजों मेंं पढ़ने लगे। शिक्षा के प्रसार का जागीरदार विरोध करते थे परन्तु बलदेवराम जी व अन्य जननायकों ने संघर्ष को टाला जिससे उनका पूरा ध्यान शिक्षा पर लगा रहा।
बलदेवराम जी ने सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन हेतु जन जागृति के कार्य किये। सभी साथियों के साथ अलग - अलग पशु मेंलों मेंं सभाएँ कर कुप्रथाओं को छोड़ने व बच्चों को पढ़ने के लिए प्रेरित करते थे। बलदेवराम जी ने किसानों को आर्थिक शोषण से मुक्त कराने हेतु सरकारी सेवा मेंं रहते हुए कई अहम कार्य किए। इसी कड़ी मेंं 27 जून 1941 को सुमेंर स्कूल, जोधपुर के प्रांगण मेंं एक विशाल किसान सभा आयोजित कर “मारवाड़ किसान सभा” नाम से राजनैतिक संगठन का गठन किया। इस संगठन के प्रयासों से “सेन्ट्रल लाग बाग कमेंटी” 30 जून 1941 को गठित हुई। मारवाड़ किसान सभा के निरन्तर प्रयासों से जोधपुर दरबार ने किसानों की दशा सुधारने के लिए कई समितियों का गठन किया जिसमेंं ‘जागीर भूराजस्व’ और ‘लागबाग जांच समिति’ 7 दिसम्बर 1942 को गठित की गई। 25 - 26 अप्रेल 1943 को तत्कालीन पंजाब रियासत के राजस्व मंत्री सर छोटूराम जी चौधरी की अध्यक्षता मेंं ‘‘मारवाड़ किसान सभा‘‘ का विशाल अधिवेशन जोधपुर मेंं आयोजित हुआ। इस अधिवेशया मेंं मंच पर जोधपुर दरबार के साथ दो किसान प्रतिनिधि सर छोटूराम चौधरी व बलदेवराम मिर्धा मंचासीन थे। यह क्षण जाट समाज व किसानों के लिए अभूतपूर्व उत्साह व आत्मसम्मान का था। इस सम्मेंलन से किसानों मेंं एक विशेष जागृति का संचार हुआ। इस सम्मेंलन के पश्चात् 2 दिसम्बर 1943 ई को मारवाड़ मेंं ‘‘भूमि बन्दोबस्त‘‘ का कार्य शुरु हुआ। भूमि बन्दोबस्त सरकारी कार्य से जागीरदार खफा हो गये तथा किसानों पर अत्याचार बढ़ने लगे। चूंकि बलदेवराम जी को 9 जनवरी 1943 को ही जोधपुर डी. आई. जी. बना दिया गया था इसलिए पद पर रहते हुए बलदेवराम जी ने पीडित किसानों की भरपूर मदद की तथा अपने घर को पीड़ितों की शरणस्थली बना दिया। जागीरदारों ने अपने संगठन बना ‘‘भूमि सेटलमेंन्ट‘‘ का कड़ा विरोध किया। सामन्तों द्वारा किसानों पर प्राणघातक हमले होने लगे और लूटने की घटनाएँ बढ़ गयीं। बलदेवराम जी डी. आई. जी. के पद पर रहते किसानों के साथ खड़े थे। इसलिए जागीरदारों व सामान्तों के दबाव मेंं उनको डी. आई. जी. के पद से हटा डाइरेक्टर पुनर्वास बना दिया गया। इससे किसान भड़क गये और मारवाड किसान सभा ने जागीरदारी प्रथा समाप्त करने की माँग शुरु कर दी।
16 जनवरी 1947 ई को बलदेवराम जी सेवानिवृत्त हो गये तथा अपना जीवन किसान हितों के लिए समर्पित कर दिया। इस समय तक किसान पुत्रों की नयी पीढ़ी शिक्षित हो कर आ गई थी जिसमेंं नाथूराम जी मिर्धा, पूनमचन्द जी विशनोई, जालूराम जी कुम्हार, परसराम जी मदेरणा आदि प्रमुख वकील थे। ये लोग भी किसानों की मदद के लिए गाँवों के दौरे करने लगे तथा उनको कानूनी सहायता निःशुल्क प्रदान करते थे। इस समय जागीरदारों के अत्याचार और अधिक बढ़ने लगे। 13 मार्च 1947 को ‘‘मारवाड़ किसान सभा‘‘ की एक मिटिंग डीडवाना के डाबड़ा गाँव मेंं थी उस पर सामन्तों ने प्राणघातक हमला किया जिसमेंं चौधरी रुघाराम, पन्नाराम लामरोड़ (डाबड़ा), रुपाराम लोल, रामूराम लोल (रसिदपूरा), नन्दराम मुंड (अड़कसर) व ब्राह्मण चुन्नीलाल (निम्बी जोधा) शहीद हुए। गाँव मेंं कई ढाणियों व घर को इस घटना के दौरान जला दिया गया था और साथ ही इस कांड मेंं 40 से अधिक लोग घायल हुए जिसमेंं चौधरी किसनाराम जी की सामन्तों ने आँखें फोड़ दी थी। 1948 मेंं जोधपुर मेंं पहली लोकप्रिय सरकार जयनारायण व्यास के नेतृत्व मेंं बनी जिसमेंं नाथूराम मिर्धा को कृषि व राजस्व मंत्री बनाया गया। 6 अप्रेल 1949 ई को ‘‘मारवाड़ टेनेन्सी एक्ट - 1949’’ पास किया गया। इस कानून से किसानों को भूमि का मालिकाना हक मिला तथा जागीरदारों के रेवेन्यू अधिकार समाप्त कर दिये गये। बलदेवराम जी मिर्धा की यह सबसे बड़ी किसानों को सौगत थी। 30 मार्च 1949 को वर्तमान राजस्थान का निर्माण हुआ उसके बाद बलदेवराम जी मिर्धा के प्रयासों के मारवाड़ किसान सभा का पूरे प्रदेशया मेंं कार्य करने हेतु ‘‘राजस्थान किसान सभा’’ के नाम से पुनर्गठन किया गया। जिसके प्रथम अध्यक्ष श्री बलदेवराम मिर्धा सर्वसम्मति से चुने गए।
आजादी के बाद भी मारवाड़ व राजस्थान के अन्य हिस्से जागीरदारी की गुलामी से मुक्त नहीं हो पाये थे। लगातार हो रहे भूमि सुधारों के कारण सामन्तों के अत्याचार किसानों पर अत्यधिक बढ़ गयें। सामन्तों मेंं से कुछ डाकू बन गयें जिससे डाकूओं की ताकत बढ़ गई। कई कारणों से मारवाड़ मेंं डाकू समस्या ने उग्ररूप ले लिया। इसी के चलते बिलाड़ा (जोधपुर) परगना के मलार - भूण्डाणा गाँवों मेंं 31 अक्टूबर 1951 (वि. सं. 2008) को एक बड़ा नरसंहार हुआ। डाकू कल्याण सिंह व उसके साथियों द्वारा 18 निहत्थे किसानों की हत्या कर दी गई। इस जागीर प्रथा विरोधी मुहिम मेंं शहादत देने वाले शहीद किसान के नाम इस प्रकार हैं (जाट रत्न, सुमेंर सिंह डूडी के आलेख से):-
क्र. स. | शहीद का नाम | पिता का नाम | जाति | गांव |
---|---|---|---|---|
1 | श्री लिखमाराम | श्री मूलाराम | जाट (माचरा) | मलार |
2 | श्री जयरूपराम | श्री सांईराम | जाट (माचरा) | मलार |
3 | श्री हीराराम | श्री गिरधारीराम | जाट (चोयल) | मलार |
4 | श्री जोधाराम | श्री प्रभुराम | जाट (चोयल) | मलार |
5 | श्री मेंहरामराम | श्री जेठाराम | जाट (चोयल) | मलार |
6 | श्री हेमाराम | श्री मोटाराम | जाट (रोज) | मलार |
7 | श्री लाल खाँ | श्री हमीर खां | सिन्धी(मुस्लमान) | मलार |
8 | श्री लाखे खाँ | श्री गोरम खां | सिन्धी(मुस्लमान) | मलार |
9 | श्री उगराराम | श्री खूमाराम | जाट (सारण) | कूड़ी |
10 | श्री विरदाराम | श्री सेवाराम | जाट (जाखड़) | भूण्डाणा |
11 | श्री रामबक्स | श्री भूराराम | जाट (जाखड़) | भूण्डाणा |
12 | श्री नेनाराम | श्री अमराराम | जाट (जाखड़) | भूण्डाणा |
13 | श्री मोतीराम | श्री गिरधारीराम | जाट (जाखड़) | भूण्डाणा |
14 | श्री तेजाराम | श्री देवाराम | जाट (जाखड़) | भूण्डाणा |
15 | श्री नारायणराम | श्री शम्भुराम | जाट (जाखड़) | भूण्डाणा |
16 | श्री लिखमाराम | श्री गिरधारीराम | जाट (जाखड़) | भूण्डाणा |
17 | श्री भबूतराम | श्री पालाराम | जाट (जाखड़) | भूण्डाणा |
18 | श्री नारायणराम | श्री कानाराम | जाट (जाखड़) | भूण्डाणा |
इस घटना ने पूरे राजस्थान को हिला दिया। बलदेवराम मिर्धा, नाथूराम जी मिर्धा, चौधरी कुम्भाराम जी आर्य, चौधरी रामदान जी (बाड़मेंर), चौधरी गुल्लाराम जी (जोधपुर) व अन्य किसान नेता बहुत आहत हुए, लेकिन इस दुख की घड़ी मेंं अपना संयम नहीं खोया बल्कि और अधिक जोश के साथ जागीर प्रथा को जड़ मूल से समाप्त करने मेंं लग गये। किसान नेताओं ने तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू से मिलकर जागीर उन्मूलन हेतु नवम्बर, 1951 ई. मेंं ही “राजस्थान भूमि सुधार व जागीरों का पुनर्ग्रहण अधिनियम 1951 ई.“ राज्य सरकार ने बनया जो राष्ट्रपति के अनुमोदन के पश्चात् फरवरी 1952 ई. को कानून के रूप मेंं लागू हुआ। जागीरदारों ने इस कानून को उच्च न्यायालय मेंं चुनौती दी जिस पर राजस्थान उच्च न्यायालय ने रोक लगा दी। कुछ समय पश्चात किसान केसरी बलदेवराम जी मिर्धा का स्वर्गवास हो गया। तब जागीरी प्रथा समाप्त करवाने व किसानों को भूमि स्वामित्व दिलवाने का बीड़ा नाथूराम जी मिर्धा व चौधरी कुम्भाराम जी आर्य उठाते हैं। इस यज्ञ मेंं राजस्थान के अनेक किसान नेता भी जुड़ जातें है। इस मुहिम से पं. नेहरू के निर्देशानुसार राजस्थान विधानसभा से “राजस्थान
भूमि सुधार एवं जागीर पुनर्ग्रहण (संशाोधन) विधेयक 1954” पारित होता है। जो 14 जून 1954 को कानून के रूप मेंं लागू हुआ। लेकिन किसानों को अभी भी अपनी भूमि का पूर्ण स्वामित्व नहीं मिला था। आखिर तत्कालीन राजस्व मंत्री चौधरी कुम्भाराम जी आर्य के अथक प्रयासों से 15 अक्टूबर 1955 को “राजस्थान काशतकारी विधेयक 1955” (The Rajasthan Tenanay Act, 1955) से किसान अपनी जोत (भूमि) के मालिक बने। इस एक्ट के प्रावधानों के अनुसार किसान को भू - स्वामित्व निःशाुल्क मिला ।
मल्लार भूण्डाणा (बिलाड़ा) हत्याकांड के बाद तत्कालीन सरकार व पुलिस को डाकू समस्या के समाधान हेतु बलदेवराज जी ने एक योजना राज्य सरकार को दी जिसके तहत कई डाकू मारे गये। बलदेवराम जी स्वयं डाकू ग्रस्त इलाकों मेंं जाकर किसानों के हौसले बढ़ाते थे। ऐसे भी कई मौके आये जब डाकूओं ने बलदेवराम जी को जान से मारने की कोशिश की ।
1952 मेंं राजस्थान किसान सभा का विलय कांग्रेस मेंं किया गया। 2 अगस्त 1953 को लाडनू मेंं किसान सम्मेंलन के दौरान अचानक दिल का दौरा पड़ने से किसान केसरी का स्वर्गवास हो गया। समग्र मूल्यांकन मेंं कहा जा सकता है कि वे एक शिक्षा-शास्त्री, समाज सुधारक, योग्य प्र-शासक एवं संवेदन-शाील राजनीतिज्ञ थे। अनेक ऐसे कार्य हैं जिनका विवरण यहाँ प्रस्तुत करना सम्भव नहीं है। वे राज-शााही मेंं किसान क्रांति के अग्रदूत थे जिसका फल हमारी कई पीढ़ियां को निरन्तर मिला है और मिलता रहेगा।
चौधरी गुल्लाराम जी का जन्म 30 सितम्बर, 1883 को गाँव - रतकुड़िया, तहसील - भोपालगढ़, जिला - जोधपुर ( राजस्थान) मेंं हुआ । इनका जन्म प्राकृतिक प्रकोपों की मार सहते हुए खेती - किसानी व पशु पालन के जरिए रोजी - रोटी का जुगाड़ करने वाले एक अति सामान्य परिवार मेंं श्रीमती लालीबाई की कोख से चै. गेनाराम बेन्दा को पुत्र रत्न प्राप्त हुआ जो इतिहास मेंं चौधरी बाबू गुल्लाराम जी के नाम से ख्याति प्राप्त हुआ। मारवाड़ के देहाती इलाके मेंं शिक्षा की ज्योति प्रज्ज्वलित कर किसानों की संतानों के लिए पढ़ाई - लिखाई की राह रोशन करने मेंं चौधरी गुल्लाराम बेंदा की विशेष भूमिका रही है।
गुल्लाराम जी का बाल्यकाल एक ग्वाले/चरवाहे के रूप मेंं गुजरा। पशुओं की चराई - निगरानी से जब भी फुर्सत मिलती तब यह बालक गाँव मेंं महाजनों व ब्राह्मणों के बालकों को पढ़ाने वाले गुरुजी के पास जाकर बैठ जाते थे। इस होनहार बालक ने थोड़े समय मेंं वहाँ अक्षर ज्ञान और गिनती, जोड़ - बाकी सीख ली। जैसा कि गाँवों मेंं उस समय आम रिवाज था, उसका अनुसरण करते हुए गुल्लाराम जी को कम उम्र मेंं ही विवाह के बंधन मेंं बाँध दिया गया। अड़चने खूब थी पर पढ़ - लिखकर जीवन मेंं आगे बढ़ने की ललक दिल मेंं हिलोरें ले रही थी।
गुल्लाराम जी के जीवन मेंं एक तरफ जवानी दस्तक दे रही थी, दूसरी तरफ दिल मेंं पढ़ - लिखकर कोई नौकरी हासिल करने की हसरत जवाँ हो रही थी। गाँव मेंं रहकर खेती के पुशतैनी कर्म मेंं अपनी जिंदगी झोंक दूँ या -शाहर की तरफ रुख कर जिंदगी का रुख ही बदल दूँ। इस दुविधा मेंं काफी समय तक डूबे इस किशाोरावस्था के लड़के ने आखिर इस दुविधा से बाहर निकलने की ठान ली। प्रारंभिक पढ़ाई कर नौकरी करने की हसरत दिल मेंं सँजोए हुए सन 1900 मेंं ही अपने रिशतेदार श्री पोकरराम जी के साथ जोधपुर पहुँच कर ही दम लिया।
जोधपुर रेलवे स्टेशन के तत्कालीन मैनेजर मिस्टर टॉड ने गुल्लाराम जी को गैंगमेंन के काम पर लगा दिया। पढ़ने - लिखने की धुन दिमाग मेंं कुछ ऐसी सवार थी कि दिन मेंं काम करते और रात को पढ़ते थे। दस महीने तक यह सिलसिला चलता रहा। फिर बीमारी की चपेट मेंं आ जाने के कारण गाँव लौटना पड़ा और रेलवे का काम छूट गया। स्वस्थ होते ही कमाई का जरिया ढूढ़ने की आशा मेंं पैदल चलकर माउंट आबू पहुँच गए। वहाँ पर कुछ दिनों तक श्रमिकों को पानी पिलाने का काम किया। खाली समय मेंं हिन्दी, गुजराती व अंग्रेजी बोलने का प्रारम्भिक ज्ञान प्राप्त किया। गुल्लाराम जी को एक दिन अंग्रेजी के कामचलाऊ वाक्य बोलता देखकर आबू हाई स्कूल के प्रिंसिपल वी. एच. स्केल्टन बेहद अचंभित हुए। उन्होंने 1 अक्टूबर 1901 को गुल्लाराम जी को अपनी दुग्ध डेयरी के काम मेंं लगा दिया। उनकी ईमानदारी तथा मेंहनत से प्रभावित होकर उनको कुछ समय बाद डेयरी का मैनेजर बना दिया। 7 अप्रेल 1904 तक गुल्लाराम जी ने डेयरी का काम बखूबी सँभाला। कुछ समय बाद फिर जोधपुर लौट आये। लेकिन वे फिर वहीं डेयरी मैनेजर पद पर काम करने के लिए पुनः आबू चले गये। 1912 मेंं आबू डेयरी बन्द होने पर गुल्लाराम जी जोधपुर आये और जोधपुर मेंं गुल्लाराम जी को यहाँ सार्वजनिक निर्माण विभाग मेंं नक्शा बनाने और भूमि का सर्वे करने का काम सौंपा गया। उन्हें 1 मार्च 1914 को ओवरसियर बना दिया गया तथा आबू, जसवन्तपुरा, सांचौर, भीनमाल आदि के भवनों की देख - रेख का जिम्मा सौंप दिया गया। बेडा ठाकुर पृथ्वी सिंह की माँग पर गुल्लाराम जी को 1 जनवरी 1925 को बेडा ठिकाने का मुख्य कामदार बना दिया। सन् 1926 मेंं जोधपुर रियासती सरकार ने नीलगिरी उटकमंड (मद्रास प्रान्त) मेंं एक विशाल भवन खरीदा जिसकी देख - रेख के लिए गुल्लाराम जी को 7 मार्च 1927 को उसका प्रबंधक नियुक्त किया गया। सेवाकाल मेंं वे लगातार जोधपुर आते रहे तथा शिक्षा का अलख जागते रहे | सेवा मेंं रहते हुए भी गुल्लाराम जी शिक्षा के लिए समर्पित थे। जिसका वर्णन आगे किया जायेगा। 1948 ई. तक गुल्लाराम जी वहीं सेवारत रहे और वहीं से सम्मानपूर्वक सेवानिवृत्त होकर मारवाड़ इलाके की पूर्णकालिक सेवा मेंं जुट गए।
इनका जन्म वि.स. 1944(1897 ई.) पोष कृष्ण पक्ष, गाँव बालवा के मोतीराम सिहाग के यहाँ हुआ था। प्रारम्भिक शिक्षा जैन उपासरा मेंं, तत्पश्चात -शौक्षणिक कार्य तथा अलाय मेंं रेलवे के अंग्रेज लोगों से अंग्रेजी का ज्ञान प्राप्त किया तथा तथा कुछ समय रेलवे मेंं नौकरी के प-शचात नागौर मेंं डाक विभाग मेंं पोस्टमैन की नौकरी की। गाँवों मेंं आने - जाने से आपको जागीरदारों के अत्याचारों की जानकारी मिलती थी। 1935 मेंं नौकरी से त्यागपत्र दे समाज सेवा मेंं लग गये। इससे पहले मूलचन्द जी सर छोटूराम व अखिल भारतीय जाट महासभा के सम्पर्क मेंं थे। इससे प्रेरित हो आपने शिक्षा हेतु अपने घर पर छात्रावास चलाया और फिर 21 अगस्त 1930 को नागौर मेंं छात्रावास बनवाया जो बाद मेंं जोधपुर किसान बोर्डिंग से सम्बद्ध हो गया। 1935 मेंं मेंड़ता मेंं जाट छात्रावास की स्थापना करवाई। वे स्त्री शिक्षा के प्रति भी सचेत थे। इसलिए अपने निवास चेनार (नागौर) मेंं एक कन्या छात्रावास खोला। आपके प्रयासों से ठाकुर देशाराज से ‘‘मारवाड़ का जाट इतिहास‘‘ ग्रन्थ प्रकाशित होना सम्भव हुआ था आपने जाटों के इतिहास को लिपिबद्ध करवाकर कौम की महान सेवा की है। आपका देहावसान पोष -शुक्ल 13 संवत् 2034 तद्नुसार -शनिवार 21 जनवरी 1978 ई. को हुआ था।
चौधरी रामदान का जन्म चैत्रवदी 3, संवत् 1940 तदनुसार 15 मार्च 1884 ई को सरली गाँव के तेजाराम जी के यहाँ हुआ था। माता का नाम दौली देवी था। 1891 मेंं आपका परिवार सरली से खड़ीन गाँव मेंं बस गया। जैसा कि सभी किसान परिवारों मेंं खेती पशु पालन ही मुख्य धन्धा होता है ऐसा ही इनके परिवार मेंं भी था। 1897 मेंं आपके पिता जी का देहान्त हो गया और 1899 ई (संवत् 1956) मेंं भयंकर अकाल (छप्पनिया काल) पड़ा तो इनका परिवार मजदूरी के लिए सिन्ध पलायन कर गया। उस समय बाड़मेंर सिन्ध रेल लाईन का निर्माण चल रहा था। हस्टपुष्ट - पुनवजयट -शरीर गठन के कारण उनको रेलवे मेंं मजदूरी मिल गयी। वे फिर सिन्ध से खडीन आ गये और उनका विवाह कस्तूरी देवी (भाखर) से हुआ। 1905 मेंं वे पुनः रेलवे के ट्रोली मैन के पद पर लगे। 1907 ई में कार्य कुशलता के कारण उन्हें जमादार का पद मिला। रेलवे की नौकरी के दौरान आपने शिक्षा का महत्त्व समझा। रेलवे के कर्मचारियों के सहयोग व स्वाध्याय से आपने हिन्दी व अंग्रेजी भाषा का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया था। उनकी कार्य - कुशलता व ज्ञान की दक्षता के आधार पर 1920 मेंं रेल पथ निरीक्षक पर पदोन्नति दी गयी। वे समदड़ी नियुक्त किये गये तत्पश्चात जोधपुर मेंं पदस्थापन किया गया।
जोधपुर पदस्थापन के दौरान रामदान जी का परिचय प्रबुद्ध जाट सज्जनों से हुआ। वे 1925 मेंं पुष्कर जाट महासभा अधिवेशन मेंं गये। जहाँ उन पर भी शिक्षा के महत्त्व का गहरा असर पड़ा। वे चौधरी गुल्लाराम के साथ शिक्षा प्रसार कार्य मेंं जुड़ गये। आपने अपने बेटे लाल सिंह को शिक्षा हेतु जोधपुर जाट बोर्डिंग मेंं भर्ती कराया साथ ही मालाणी के कई बच्चों को भी यहाँ पर भर्ती कराया।
1930 मेंं उनका पदस्थापन बाड़मेंर मेंं हो गया। आपने मालाणी के किसानों को शिक्षा की महत्ता समझाई। उस समय जाटों का पढ़ना दूर की कौड़ी था। रामदान जी ने पढ़ने वाले बच्चों को अपने घर मेंं रखा तथा उनके भोजन की व्यवस्था उनकी पत्नी करती थी। संख्या बढ़ने पर 1934 मेंं एक मकान किराये पर ले जाट बोर्डिंग हाऊस बाड़मेंर की स्थापना की। जिसे वे चन्दे से आर्थिक सहयोग प्राप्त कर चलाते थे। 1937 मेंं जोधपुर सरकार से 30 रू. का मासिक अनुदान शुरु हुआ। चौधरी रामदान के अथक प्रयासों से बाड़मेंर मेंं बोर्डिग के स्थाई भवन हेतु जमीन खरीदी गयी तत्पश्चात भवन निर्माण कार्य शुरु हुआ जो 1941 मेंं आधा बनकर तैयार हुआ और 1946 मेंं पूर्ण भवन बनकर तैयार हुआ। जाट बोर्डिंग (छात्रावास) संचालन हेतु आपने अपने बड़े बेटे केसरीमल जी को 1933 मेंं ही रेलवे की नौकरी भी छुड़वा दी थी।
1946 मेंं ही आप सेवानिवृत्त हो गये तब आपने सक्रिय रूप से मारवाड़ किसान सभा मेंं काम करना शुरु कर दिया। 1949 मेंं मारवाड़ लेण्ड रेवेन्यू एक्ट व मारवाड़ टेनेन्सी एक्ट 1949 पास हुआ तब जागीरदारों का मालाणी मेंं अत्याचार बहुत बढ़ गया था तथा राजपूत जागीरदारों ने डकैतियाँ व लूट शुरु की जिसके विरोध करने पर 27 जाट किसान मारे गये। तब रामदान जी जागीरदारों के खिलाफ पहाड़ बनकर किसानों के साथ खडे़ हुए। आप जब 1957 मेंं विधायक बने तब ‘‘राजस्थान मृत्यु भोज निवारण अधिनियम 1960‘‘ बनवाया। रामदान जी का देहावसान 24 अक्टूबर 1963 को हुआ। आपके तृतीय पुत्र गंगाराम जी चौधरी उनके राजनीतिक वारिस हुए जिन्होंने शिक्षा, समाज सुधार व कुरीतियों के निवारण मेंं चौधरी रामदान के आन्दोलन को नयी दिशा दी। और बाड़मेंर कन्या छात्रावास की सौगात आपकी ही देन रही।
मारवाड़ किसान विशेष कर जाट समाज की दशा सुधारने मेंं चौधरी भींयाराम की अहम भूमिका थी। चौधरी भींयाराम का जन्म भादवा सुदी 11 वि.सं. 1948 तदनुसार 14 सितम्बर 1891 ई को नागौर के परबतसर मेंं हुआ था। आपके पिता का नाम जेठा राम सियाग व माता का नाम कंवरी देवी था। गाँव मेंं ही साधारण पढ़ने लिखने के बाद आप धन्धे की तलाशा मेंं जोधपुर आ गये। जहाँ पर जोधपुर मिलिट्री के सुमेंर केमल कोर मेंं साईकिल सवार के पद पर 14 फरवरी 1918 को नियुक्त हुए। चौधरी भींयाराम 1925 ई. मेंं कार्तिक पूर्णिमा को अखिल भारतीय जाट महासभा के अधिवेशन मेंं भाग लेने पुष्कर गये। जहाँ पर आप मेंं भी अन्य जाट बन्धुओं की तरह शिक्षा के प्रति गहरे भाव जागे। फिर गुल्लाराम जी, मूलचन्द जी, चौधरी गंगाराम खिलेरी, बाबू दूधाराम जी, मास्टर धारा सिंह के साथ सामाज मेंं शिक्षा - प्रसार व छात्रावासों के निर्माण मेंं लग गये। आप मारवाड़ जाट कृषक सुधारक सभा के संस्थापक सदस्य थे और कोषाध्यक्ष भी रहे। चौधरी भींयाराम जी ने छात्रवासों के लिए चन्दा एकत्रित करने मेंं अहम भूमिका निभाई थी। आप औसर - मौसर के खिलाफ जन जागृति का कार्यक्रम चलाते थे। आप मारवाड़ किसान सभा के भी संस्थापक सदस्य थे। चौधरी भींयाराम जी ने परबतसर मेंं शिक्षा के प्रसार व किसान बच्चों के लिए छात्रावास निर्माण मेंं महत्त्वपूर्ण कार्य किया था। आपने 1945 मई 05 को परबतसर मेंं “श्री वीर तेजाजी जाट बोर्डिंग हाऊस परबतसर” की स्थापना की। प्रारम्भ मेंं इन्होंने अपने घर मेंं ही छात्रावास चलाया फिर एक मकान खरीद कर छात्रावास को स्थाई भवन दिया। 1946 मेंं सेवानिवृत्ति के पश्चात आप ने सम्पूर्ण जीवन शिक्षा व समाज सुधार मेंं लगा दिया। आपका स्वर्गवास 1954 मेंं हुआ था।
आजादी से पूर्व जब दुनिया में शिक्षा का प्रसार प्रगती की तरफ बढ़ रहा था उस समय भारत इसमें काफी पिछे था और तत्कालीन मारवाड़ तो अति पिछड़ा क्षेत्र था। यहाँ पर राजशाही में निरंकुश जागीरदारी प्रथा के चलते किसानों व पिछड़ों को शिक्षा से वंचित रखा जाता था। उस समय स्व. किसान केसरी बलदेव राम मिर्धी की प्रेरणा से चैधरी मास्टर रघुवीर सिंह उत्तर प्रदेश से जोधपुर आते हैं। वे अपने जीवन को यहां के किसानों की शिक्षा के लिए सम्मर्पित कर अन्तिम सांस तक यहां ही के होकर रह जाते हंै।
मास्टर रघुवीर सिंह जी का जन्म 5 जनवरी 1905 को गाँव दुहाई, तत्कालीन तहसील गाजीयाबाद जिला मेरठ, उत्तर प्रदेश में हुआ था। उनके पिता का नाम घासी राम तेवतीया था। कुछ दस्तावेजों में उनके पिता का नाम घसीठा सिंह भी आता है। जबकी 1962 के एक दस्तावेज में मास्टर साहब ने स्वयं अपने पिता का नाम घासी राम लिखा है। आपकी माता का नाम सुधी देवी था। वे तीन भाइयों में सबसे छोटे थे। रघुवीर सिंह जी पढने में शुरू से ही प्रतिभाशाली थे तथा 19 वर्ष की आयु में शादी से पूर्व ही उन्होंने विज्ञान में स्नातक की उपाधी प्रथम श्रेणी में प्राप्त की। उनको अंग्रेजी, परसीयन व उर्दू भाषा का भी अच्छा ज्ञाऩ था। अध्ययन के बाद प्रतिभाशाली युवक का चयन ब्रिटिश काल के केन्द्रीय लोक सेवा आयोग में हुआ तथा वे दो वर्ष सेवा में रहे लेकिन एक ब्रिटिश अधिकारी से अनबन होने पर वहाँ की सेवा छोड़ दी। इसके बाद उन्होंने भारत पेट्रोलिय के बुम्बई कार्यालय में मैनेजर पद पर नियुक्ति प्राप्त की। लेकिन कुछ समय पश्चात वे अपनी कौम के कल्याण कार्यों में भागीदारी निभाने हेतु पुनः मेरठ आ जाते हैं। यहाँ पर वे शिक्षा के लिए युवाओं को प्रेरित करने के साथ किसान समस्याओं का भी अध्ययन कर उनके निराकरण में सम्मर्पित भाव से लग गये। उनकी दृढ मान्यता थी कि जाट व किसान का उत्थान तब ही सम्भव होगा जब उनके बच्चे (लड़का/लड़की) शिक्षित होंगे। कुछ ही समय में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उन्होने जाट सभा के माध्यम से शिक्षा की अलख जगा दी, साथ ही साथ ही समाज सुधार के कार्य भी करने लगे। 1931 के दिसम्बर माह में “गंगा कात्र्तिक स्नान” के अवसर पर उन्होंने गढमुक्तेस्वर में जाट सभा के बेनर तले समाज की एक बड़ी रैली की तथा सभा में शिक्षा के महत्त्व व समाज सुधार पर औजस्वी सम्बोधन दिया। उस प्रभावशाली व्याख्यान से वहाँ उपस्थित सभी लोग बहुत प्रभावित हुए। संयोग से उस सभा में किसान केसरी बलदेवराम जी मिर्धा भी उपस्थित थे। मिर्धा रघुवीर सिंह जी के तथात्मक प्रेरित करने वाले भाषण से अत्यधिक प्रभावित हुए। सभा के बाद में उन्होंने रघुवीर सिंह जी से मारवाड़ में जाटों की स्थिति व शिक्षा के सम्बन्ध में चर्चा की तथा उनको मारवाड़ चलने का निमंत्रण भी दिया। उस समय तो रघुवीर सिंह जी ने यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया। लेकिन बलदेवराम जी ने इस युवा में जाट समाज के प्रति सेवा के जज्बे को पहचान लिया था, इसलिए कुछ समय बाद मिर्धा जी ने उनके बड़े भाई सूबेदार दरियाव सिंह जी के माध्यम से पुनः रघुवीर सिंह जी को मारवाड़ आने का न्योता दिया। इस बार रघुवीर सिंह जी ने मारवाड़ जोधपुर में जाट समाज के लिए शिक्षा के केन्द्र बोर्डिंग हाऊस को सम्भालने की हामी भर ली।
4 फरवरी 1933 को चैधरी रघुवीर सिंह जी का जोधपुर आगमन होता है। तत्पशचत 13 फरवरी को ही उनको जोधपुर स्थित किसान बोर्डिंग हाऊस (तत्कालीन जाट बोर्डिंग हाऊस) का साहयक मैनेजर नियुक्त कर दिया जाता है। जुलाई 1933 में रघुवीर सिंह जी को बोर्डिंग हाऊस के जनरल मैनेजर के पद पर नियुक्त किया जाता है। इसके बाद रघुवीर सिंह को धीरे-धीरे मारवाड़ के समस्त जाट बोर्डिंग हाऊसेज के संचालन में सहयोग करने का जिम्मा भी दिया जाता है। 1934 ई. से तत्कालीन जोधपुर रियासत सरकार ने सभी बोर्डिंग हाऊसेज को सहायता राशि प्रदान करने की शुरूआत की थी। उस सहायता राशि को सभी संस्थानो को वितरति करने का कार्य भी रघुवीर सिंह जी सम्भालते थे। यहां से ही रघुवीर सिंह जी मारवाड़ के जाट समाज में मास्टर साहब के नाम से प्रसिद्ध होते हैं। समाज के प्रबुद्ध जनों के साथ गाँव-गाँव का दौरा कर छात्रावासों के लिये धन संग्रह का कार्य भी वे करते थे। साथ ही समाज के लोगों को बच्चों को पढ़ाने के लिए प्रेरित करते थे। उनके प्रेरित करने वाले भाषणों से ही सम्पूर्ण मारवाड़ में चैधरी गुल्लाराम जी, चैधरी मूलचन्द जी, चैधरी भींयाराम जी, चैधरी रामदान जी आदि को शिक्षा प्रसार के कार्य में बड़ा सहयोग मिलता था। जोधपुर जाट बोर्डिंग हाऊस में किसान वर्ग के सर्वसमाज छात्र रहते थे। जिनमें नाथूराम जी मिर्धा, पूनम चन्द जी विश्नोई, परसराम जी मदेरणा, राम सिंह जी विश्नोई, खेमाराम पटेल, रामनारायण चैधरी आदि कई प्रतिभाशाली छात्रों ने उनके संरक्षण में शिक्षा प्राप्त की थी। आगे चल कर उपरोक्त सभी बन्द्वुओं ने किसान समाज की बड़ी सेवा की। अपना जन्म स्थान व घर बार छोड़ समाज सेवा करने का ऐसा उदाहरण मिलना मुश्किल हैं। वे छात्रों के प्रति बड़े स्नेही रहते थे, परन्तु अनुशासन तोड़ने वालों से शक्ति से पेश भी आते थे। समय व नियमों को मास्टर साहब कड़ाई से पालन करते थे। किसान बोर्डिंग हाऊस के संचालन में उनको सहयोग करने वाले मुख्यतः महाराज नृसिंह दास जी, एंडवोकेक्ट जालू राम जी प्रजापत, मास्टर भंवरलाल जी जोशी, मास्टर टीकम सिंह जी टाक, तथा लादूराम जी ग्वाला आदि प्रमुख थे।
रघुवीर सिंह जी की धर्म पत्नी का नाम नारायणी कौर था जो संगवान गौत्र की थी उनके एक पुत्री विजयलक्ष्मी थी जो आयुर्वेदाचार्य थी। उनके पति रामपाल शास्त्री भी आयुर्वेदाचार्य (राजस्थान सरकार) थे। विजयलक्ष्मी का स्वर्गवास 2012 में हुआ तथा शास्त्री का निधन 2017 में हुआ। जीवन पर्यन्त मास्टर साहब किसाना बोर्डिंग हाऊस में एक ही कमरे में आवास करते थे। उनका जीवन बहुत ही सादगी पूर्ण था। मास्टर रघुवीर सिंह का स्वर्गवास 25.01.1975 को हुआ था।
नाथूराम जी का जन्म 20 अक्टूबर 1921 ई. को जोधपुर रियासत के नागौर परगना (जिला नागौर) के गाँव कुचेरा निवासी चैधरी थानाराम राड़ के यहाँ हुआ। चूंकि इनके पिता जोधपुर रियासत में बिलाड़ा हाकिम के यहां नौकरी करते थे इसलिए नाथूराम जी का जन्म बिलाड़ा में हुआ था। इनकी माता का नाम गोगादेवी था। थानाराम जी का स्वर्गवास (1927) नाथूराम जी के बाल्यकाल में ही हो गया था। अतः इनका परिवार पुनः कुचेरा आ गया। उनका विवाह 16 वर्ष की आयु में केसर देवी के साथ हुआ। नाथूराम जी ने मैट्रिक परीक्षा जोधपुर में रह कर प्रथम श्रेणी से 1940 ई में उत्र्तिण की। उनकी शिक्षा किसान बोर्डिंग हाऊस में मास्टर रघुवीरसिंह जी के मार्गदर्शन में हुई। नाथूराम जी ने इन्टर विज्ञान में उत्र्तिण (1941) की थी और वे डाक्टर बनना चाहते थे। परन्तु किसान केसरी बलदेवराम जी मिर्धा ने उन्हें कानून की पढाई करने का परामर्श दिया क्योंकि उस समय किसानों की कानूनी पैरवी करने वाला कोई नहीं था। 1942 में वकालत की पढाई करने हेतु लखनऊ विश्वविद्यालय में उन्होंने प्रवेश लिया। 1944 में वकालत की पढाई कर उन्होंने 1946 में एम.ए अर्थशास्त्र में की। 1946 में अध्ययन पूर्ण कर वे वापिस जोधपुर लौटे तब देश में आजादी का आन्दोलन परवान पर था। साथ ही जागीर प्रथा के खिलाफ भी किसानों में आक्रोश था। ऐसे में नाथूराम जी ने बलदेवराम जी के निर्देशन में शिक्षा, समाज जागरण व भूमि सेटलमेन्ट सम्बन्धी कार्यो को परवान चढाने में अहम काम शुरू किये।
नाथूराम जी के कार्यों व कुशाग्र बुद्धि को मद्ेनजर बेलदेवराम जी ने इनको 1947 में मारवाड़ किसान सभा की पुनर्गठित कार्यकारणी का सचिव नियुक्ति किया जिसके नृसिंह कच्छवाहा अध्यक्ष चुने गये थे। इस कार्यकारणी में 14 अन्य सदस्य भी थे जिनमें चैधरी गुल्लाराम जी, चैधरी रामदान जी, परस राम जी मदेरणा, अब्दुल हादी, पूनम चन्द जी विश्नोई, जालूराम जी प्रजापत व किसना राम जी रोज (खाटू) प्रमुख व्यक्ति थे। आजादी के पश्चात 15 मार्च 1948 को जोधपुर में बलदेवराम जी के नेतृव्य में विशाल किसान रैली निकाली गयी जिसमें मांग थी कि जोधपुर में लोक सरकार का गठन हो। हालांकि रैली से पूर्व ही जोधपुर में पहली बार लोकप्रिय मंत्री मण्डल का गठन जय नारायण व्यास के नेतृत्व में हो गया था। जिसमें नाथू राम जी को कृषि व पंचायत मंत्री बनाया गया। फिर भी रैली हुई जिसमें 50 हजार से अधिक किसानों ने भाग लिया। जोधपुर दरबार ने 1948 ई 4 सितम्बर को मंत्रीमण्डल का पुनर्गठन किया तब नाथूराम जी को राजस्व मंत्री बनाया गया। यह सरकार मात्र छः माह ही रही। इस अल्पकाल में नाथूराम जी ने अपनी सूजबुज से भूमि सुधार व जागीरों के अधिकार उन्मूलन के कई कार्य किये जिसमें मारवाड़ टिनेन्सी एक्ट 1949 बहुत महत्वपूर्ण था जिससें किसानों को पहली बार खातेदारी हक मिले। जोधपुर रियासत में व आजादी पश्चात राजस्थान में नाथूराम जी राजनैतिक रूप से किसानों के स्तंभ थे। उनके प्रयासों से अलग-अलग समय में 1955 तक बने कई कानूनों का वर्णन अन्यतत्र किया जा चुका है। नाथूराम जी ने मारवाड़ के विभिन्न पशु मेलों को जन जागरण केन्द्रों के रूप में उपयोग किया जहां पर हर क्षेत्र से पशु पालक व किसान आते थे। मेलों में लम्बे समय तक जन सभाओं का आयोजन करते थे। प्रथम आम चुनाव कांग्रेस के लिए मारवाड़ में अग्नि परिक्षा की तरह था। यहां पर जागीरदारों की “रामराज्य परिषद” पार्टी कांग्रेस पर भारी थी। प्रथम आम चुनाव में मारवाड़ की 32 सीटों में से कांग्रेस मात्र चार पर ही विजयी हुई जिसमें नाथूराम जी मिर्धा एक थे। 3 मार्च 1952 को टीकाराम पाली वाले के नेतृत्व में राजस्थान में प्रथम आम चुनाव पश्चात जो लोकतांत्रिक सरकार बनी उसमें नाथूराम मिर्धा शिक्षा, वित्त व सार्वजनिक लोक निर्माण मंत्री बने। पालीवाल जागीरदारों के दबाव में थे अतः 31 अक्टूबर 1952 को जय नारायण व्यास को मुख्यमंत्री बनाया गया, परन्तु नाथूराम जी यथावत मंत्री रहे। यह मंत्री मण्डल भी लम्बे समय तक नहीं चला सका और 13 नवम्बर 1954 को मोहनलाल सुखड़िया मुख्यमंत्री बने लेकिन इस में नाथूराम जी की जगह चैधरी कुम्भाराम जी आर्य को मंत्री बनाया गया। दूसरे आम चुनाव (1957) में भी नाथूराम जी मेड़ता से विजयी रहे तथा फिर से कृषि व सिंचाई मंत्री बने। तीसरे चुनाव में भी नाथूराम जी विजयी हुऐ व इस बार उनको खाद्य, कृषि, पंचायतराज मंत्रालयों के साथ 13 अन्य मंत्रालयों का कार्यभार मिला। लेकिन चैथे आम चुनाव जो 1967 में हुए थे उसमें नाथूराम जी व रामनिवास जी मिर्धा दोनों हार गये थे। 24 सितम्बर 1967 को नाथूराम जी पहली बार राजस्थान प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बने। 1971 के लोकसभा मध्यावधि चुनावों में वे कांग्रेस के टिकट पर नागौर से भारी मतों से लोकसभा चुनाव जीत पहली बार सांसद बने। 1972 में लोकसभा में तत्कालीन सरकार ने भूमि सिलिंग बिल रखा। संसद में कांग्रेस के किसी भी सदस्य ने इस बिल का विरोध नहीं किया लेकिन नाथूराम जी जो जमीनी हालातों के जानकार थे, इसलिए उन्होंने तथ्यात्मक तर्कों के साथ बिल का कड़ा विरोध किया। जिससे बिल में अहम परिवर्तन करने पड़े। 1971 से 1975 तक वे राष्ट्रीय कृषि आयोग के अध्यक्ष रहे।
आपातकाल के बाद 1977 में हुऐ चुनाव में नाथूराम मिर्धा एक मात्र उत्तर भारत (नागौर) से जीतने वाले कांग्रेसी संासद थे, तब इंदिरा गांधी भी चुनाव हार गयी थी। आपकाल के बाद 1977 में कांग्रेस का दूसरा विभाजन हो जाता है। एक हिस्सा इन्दिरा गांधी के साथ कांग्रेस (आई) तथा दूसरा कांग्रेस(अर्स) के नाम से जाना जाता है। मिर्धा कांग्रेस(अर्स) के साथ रहते है तथा 1978 से 1984 तक कांग्रेस(अर्स) के राजस्थान प्रदेशाध्यक्ष रहे। जनता पार्टी विभाजन पर 28 जुलाई 1979 को चैधरी चरण सिंह के नेतृत्व में सरकारी बनी, जिसमें नाथूराम जी मिर्धा पहली बार केन्द्र में वित्त, कृषि व सिंचाई राज्यमंत्री बने। प्रधानमंत्री चरण सिंह की सरकार से इन्दिरा गाँधी ने तत्कालीन इन्दिरा कांग्रेस का समर्थन वापिस ले लिया। तत्पश्चात 1980 के प्रारम्भ में संसद के चुनाव में नाथूराम जी मिर्धा फिर से नागौर लोकसभा क्षेत्र से कांग्रेस अर्स के टिकट पर विजयी हुए। 1980 में ही आपको दिल्ली स्थिति महाराजा सूरजमल स्मारक शिक्षण संस्थान का अध्यक्ष भी चुना गया।
1985 के आम चुनाव से पहले कांग्रेस (अर्स) का अस्तित्व सिमट गया था। इसलिए उन्होंने नवम्बर 1984 में कांग्रेस (अर्स) से त्याग पत्र दे कर चैधरी चरण सिंह के लोक दल की सदस्यता ले ली। इसी के साथ वे 1984 से 1988 तक राजस्थान लोक दल प्रदेशाध्यक्ष रहे। वैसे वे 1984 के चुनाव में नागौर से दलित मजदूर किसान पार्टी (लोक दल) के टिकट पर चुनाव लड़े और राम निवास जी मिर्धा (कांग्रेस) को हरा विजयी रहे। नाथूराम जी ने इसके बाद फिर से 1985 में मेड़ता से लोक दल उम्मीदवार के रूप चुनाव लड़ विजय प्राप्त की। नवम्बर 1989 के लोकसभा चुनाव में नाथूराम जी के नेतृत्व में राजस्थान की सभी 25 सिटों पर लोकदल व विपक्ष के उम्मीदवार विजयी हुए। तब विश्वनाथ प्रतापसिंह के नेतृत्व में बनी केन्द की सरकार में मिर्धा जी को खाद्य व नागरिक आपूत्र्ति मंत्री बनाया गया। इस चुनाव के समय लोकदल की जगह चरण सिंह जी ने जनता दल बनाया था जिसके प्रदेशाध्यक्ष 1989 से 1990 तक नाथूराम जी रहे।
मार्च 1991 में नाथूराम जी ने पुनः कांग्रेस का दामन थाम लिया। और 1991 के चुनावों में नागौर से लोकसभा सांसद चुने गये। उस समय पंचायराज को संवैधानिक दर्जा देने हेतु गठित संसदीय कमेटी के अध्यक्ष नियुक्त किये गये। उनकी कमेटी की अनुशंसा पर 72 वें संविधान संशोधन से “पंचायतराज कानून 1992” बना जो वर्तमान में ग्राम सरकार(पंचायतीराज) की मजबूती का अहम प्रमाण है। नाथूराम जी जीवनपर्यन्त किसान व गाँव के उत्थान के लिए प्रयत्नशील रहे। वर्ष 1996 में वे गम्भीर रूप से बिमार हो गये तब उनको दिल्ली एम्स अस्पताल में भर्ती कराया गया। उसी दौरान मई 1996 में आम चुनाव होते हैं। उस समय उन्होंने अपने एजेन्ट के माध्यम से चुनाव का नामांकन नागौर से भरा तथा नागौर मतदाताओं के नाम एक मार्मिक अपील जारी की तथा स्वयं बिमारी के कारण नागौर नहीं आ सके। नागौर के मतदाताओं का बाबे की प्रति स्नेह ही था कि वे उस चुनाव में 1 लाख 69 हजार मतों से विजयी हुए। यह उनकी लोकसभा चुनाव की छठी जीत थी।
राजनीति से परे नाथूराम जी मिर्धा हमेशा अपने सामाजिक दायित्वों के प्रति भी सजग रहे। उन्होंने अपनी माताजी के नाम से सामाजिक शैक्षिण, सांस्कृतिक कार्यों हेतु “श्रीमती गोगी देवी चेरिटेबल ट्रस्ट की स्थापना की। इस ट्रस्ट के माध्यम से अनेक संस्थानों को सहयोग दिया। महाराजा सूरजमल ट्रस्ट के 18 वर्ष तक अध्यक्ष भी रहे थे। सांगरिया स्थित स्वमी केशवानन्द ग्रामोत्थान विद्या पीढ में कृषि महाविद्यान की स्थापना की स्वीकृति भी आपके प्रयासों से मूर्त रूप ले सकी। आजादी पश्चात किसान बोर्डिंग हाऊस के माध्यम से किसान परिवारों के बच्चों की आवासीय आवश्यकताओं को ध्यान में रख हमेशा सक्रिय रहे। नाथूराम जी मिर्धा का आमजन से पत्राचार से सम्पर्क अधिक रहता था वे हमेशा कहते थे जो काम 15 पैसे के पोस्टकार्ड से हो सकता है उसके लिए धन व समय खर्च करने की आवश्यकता नहीं। पुरानी पीढी के लोगों के पास आज भी नाथूराम जी के हस्त लिखित पोस्ट कार्ड मिल जाते हैं। नाथूराम जी पशु मेलों के आयोजन व वहां पर सुविधाओं के प्रति हमेशा सजग रहते थे। वे किसान की खेती व पशुपालन की समस्याओं से मेलों में रूबरू होते थे। बाबा सर्व समाज नेता थे और विशेष कर हर गरीब किसान के जो आजादी के बाद जमीदारों से छूटकारा मिलने पर रिश्वतखोर सरकारी अधिकारी व कारींदों से दुखी थे। राजस्थान प्रदेश में नाथूराम जी मिर्धा जितना कोई जननायक नहीं हुआ क्योंकि वे चाहे सत्ता में रहे हो या विपक्ष में उनके लिए जनहित व इमानदारी सर्वोपरि थी। इसीलिए वे हमेशा विधानसभा लोकसभा चुनाव जीतते रहे चाहे पार्टी कोई भी रही हो।
मारवाड़ व राजस्थान के किसान व गरीबों के मसीहा 30 अगस्त 1996 को हमेशा के लिए अलविदा हो गये, लेकिन उस महानायक को पीढियों तक भूलाया नहीं जा सकेगा। 1 सितम्बर 1996 की शाम मिर्धा जी की अन्तिम इच्छानुसार उन्हीं के चैपासनी स्थित (जोधपुर) फार्म हाऊस पर अन्तिम विदाई दी गई।
मारवाड़ के कुछ किसान पुत्र रेलवे व फौज मेंं नौकरी करने लगे तब उनको शिक्षा का महत्व समझ मेंं आया। शिक्षा व नौकरियों से प्रबुद्ध जाटों का आपस मेंं सम्पर्क बढ़ाने लगे जिससे संगठित रूप से शिक्षा व समाज सुधार के कार्यों ने गति पकड़ी।
चौधरी गुल्लाराम जी व चौधरी मूलचन्द ने मारवाड़ के किसानों की दारुण दशा सुधारने का बीड़ा उठाया। मारवाड़ मेंं शिक्षा - जागृति की ज्वाला को प्रज्ज्वलित करने के लिए आवशयक सलाह - म-शाविरे के वास्ते वे दोनों 27 मार्च 1921 को संगरिया जाट स्कूल के वार्षिक जलसे मेंं शामिल होने पहुँचे। इस जलसे का सभापतित्व करने रोहतक से सर छोटूराम जी चौधरी पधारे थे। इन दोनों हस्तियों ने सर छोटू राम जी से अलग से मुलाकात कर मारवाड़ मेंं शिक्षा प्रसार हेतु सलाह ली। साथ ही मारवाड़ के किसानों की समस्या का समाधान और उनकी जागृति तथा उत्थान के लिए परामर्श किया। सर छोटूराम जी ने सलाह दी कि वे मारवाड़ मेंं राजनीतिक और सामाजिक उत्थान से पहले किसानों मेंं शिक्षा के प्रचार - प्रसार को अपनी प्राथमिकता बनायें और शासन - सत्ता के विरोध मेंं अपनी शाक्ति व समय का अपव्यय न करें। इस सलाह को शिरोधार्य करते हुए यह तय किया गया कि मारवाड़ के किसानों को शिक्षित करने की दिशा मेंं सार्थक पहल हर हाल मेंं करनी ही है।
इस सिलसिले मेंं समुचित कार्य योजना पर विचार करने के लिए चौधरी गुल्लारामजी ने सर छोटूरामजी को 1921 की गर्मी के महीनों मेंं अपने गाँव रतकुड़िया आमंत्रित किया। ये वो वक्त होता था जब किसान खेतों के काम से मुक्त रहते थे। एक बड़ा जुलूस गाँव मेंं निकाला गया। सभा मेंं सर छोटूराम ने शिक्षा तथा संगठन के महत्त्व पर भाषण दिया। इस तरह माहौल निर्मित कर चौधरी गुल्लारामजी ने 1 जुलाई 1921 को गाँव के पास उम्मेंद स्टेशन पर एक पाठशाला स्थापित कर मास्टर नैनसिंह को बच्चों को पढ़ाने का जिम्मा सौंपा। 1924 तक यह पाठशाला संचालित रही जिसका समस्त व्यय चै. गुल्लाराम ने वहन किया। परन्तु लोगों का असहयोगत्म रुख रहने के कारण इस स्कूल का पर्याप्त फायदा लोग नहीं उठा सके और यह पाठ-शाला बंद हो गयी। चौधरी गुल्लाराम जी व उनके साथियों ने हार नहीं मानी। अक्टूबर 1925 मेंं कार्तिक पूर्णिमा को पुष्कर मेंं अखिल भारतीय जाट महासभा का जो अधिवेशन आयोजित हुआ, उसमेंं मारवाड़ से चौधरी गुल्लाराम, चौधरी मूलचंद सिहाग, मास्टर धारासिंह, चौधरी रामदान, चौधरी भींयाराम सिहाग आदि शिरकत करने पहुँचे। भरतपुर के तत्कालीन महाराजा श्री कृष्णासिंह की अध्यक्षता मेंं आयोजित इस अधिवेशन मेंं देश के हर कोने से आए जाटों की तुलना मेंं मारवाड़ के जाटों की बदहाली को स्वीकारते हुए उन्होंने यह माना कि मारवाड़ मेंं जाटों की दयनीय हालत व पिछड़ेपन का मूल कारण वहाँ शिक्षा का अभाव है।
अशिक्षा के अँधेरे मेंं डूबे मारवाड़ के देहातवासियों की संतानों के जीवन को शिक्षा की लौ से रोशन करने की कार्ययोजना की क्रियान्विति हेतु चौधरी गुल्लारामजी के रातानाडा स्थित अपने मकान पर चौधरी मूलचंद जी सिहाग(नागौर), चौधरी भींयारामजी सिहाग (परबतसर), चौधरी गंगारामजी खिलेरी (नागौर), बाबू दूधारामजी और मास्टर धारासिंह की एक मीटिंग हुई। इसी सिलसिले मेंं 2 मार्च 1927 को जाट समाज के 70 मौजिज लोगों की एक बैठक श्री राधाकिशन मिर्धा की अध्यक्षता मेंं हुई। इस बैठक मेंं चौधरी गुल्लारामजी ने जाटों की उन्नति का मूलमंत्र दिया कि ‘‘पढ़ो और पढ़ाओ‘‘। एक जाट संस्था खोलने के लिए धनराशि इकट्ठा करने की अपील भी इसी बैठक मेंं की गयी। यह तय किया गया कि बच्चों को निजी स्कूल खोल कर उनमेंं भेजने के बजाय कस्बों मेंं स्थित सरकारी स्कूलों मेंं दाखिला दिलाया जाए। कस्बों मेंं पढ़ने आने वाले बच्चों के आवास की समस्या से निपटने के लिए हर कस्बे मेंं होस्टल खोले जावें। इस योजना की शुरुआत करते हुए चौधरी गुल्लारामजी ने अपना रातानाडा स्थित मकान एक वर्ष के लिए छात्रावास हेतु देने व बिजली, पानी, रसोइए का एक वर्ष का खर्च वहन करने की घोषणा की। इस तरह 4 अप्रेल 1927 को चौधरी गुल्लारामजी के मकान मेंं ‘‘जाट बोर्डिंग हाउस, जोधपुर‘‘ की स्थापना हुई। बाद मेंं श्री बलदेवराम मिर्धा ने 1929 ईस्वी मेंं जोधपुर के नागौरी दरवाजे के अंदर महंत सूरतराम महाराज का एक विशाल भवन दस हजार रुपये मेंं खरीद लिया और छात्रावास इस भवन मेंं स्थानांतरित कर दिया गया।
जोधपुर स्थित इस छात्रावास का काम सन् 1930 तक ठीक से जम गया और तत्कालीन जोधपुर सरकार से अनुदान मिलना भी प्रारम्भ हो गया। इसके बाद विभिन्न जगहों पर छात्रावासों के निर्माण के सिलसिले को आगे बढ़ाया गया। चौधरी मूलचंद सिहाग के प्रयासों से 21 अगस्त 1930 को नागौर छात्रावास स्थापित किया गया। इन लोगों ने अन्य गणमान्य किसानों के सहयोग से एक के बाद एक कई कस्बों में छात्रावास खुलवाए । बाड़मेंर मेंं सन् 1934 में चौधरी रामदान डऊकिया की मदद से छात्रावास शुरु किया गया।
सन् 1935 मेंं चौधरी पूसाराम पूलोता, डांगावास के महाराम कमेंडिया, प्रभुजी घटेला, तथा बिरधा राम जी मेंहरिया के सहयोग से मेंड़ता मेंं छात्रावास की स्थापना की गई। इसके बाद चौधरी बलदेवराम मिर्धा, बाबू गुल्लाराम जी, चौधरी मूलचंद जी की प्रेरणा व सहयोग से अन्य स्थानों पर एक के बाद एक किसान छात्रावास खोले गए। सूबेदार पन्नारामजी ढिंगसरा व किसना राम जी रोज छोटी खाटू के सहयोग से डीडवाना मेंं, ईशवर रामजी महाराजपुरा के सहयोग से मारोठ मेंं, भींयाराम जी सिहाग के सहयोग से परबतसर मेंं, हेतरामजी के सहयोग से खींवसर मेंं छात्रावास स्थापित हुए। इन छात्रावासों के अलावा पीपाड़, कुचेरा, लाडनूं, रोल, जायल, अलाय, बिलाड़ा, रतकुड़िया आदि स्थानों पर भी छात्रावास खोले गए।
इस प्रकार मारवाड़ के शिक्षा सेनानियों ने, जिनमेंं चौधरी बलदेवराम जी मिर्धा, चौधरी गुल्लाराम, चौधरी मूलचंद जी, चौधरी भींयाराम जी, चौधरी रामदान जी आदि प्रमुख थे, मारवाड़ मेंं छात्रावासों की एक शृंखला स्थापित कर दी तथा इनके सुचारु संचालन हेतु एक शीर्ष संस्था ‘‘किसान शिक्षण संस्थान, जोधपुर‘‘ स्थापित कर जोधपुर सरकार से मान्यता प्राप्त करवाने मेंं सफलता प्राप्त की। छात्रावासों के संचालन हेतु आर्थिक सहायता सुलभ होने से शिक्षा प्रचार के मामले मेंं मारवाड़ के किसानों ने एक अनुकरणीय मिसाल कायम की। इन छात्रावासों व पाठ-शालाओं के लिए यू.पी. से अध्यापक बुलाकर लगाये गये जिनमेंं मास्टर रघुवीर सिंह, अमन सिंह, करण सिंह, चरण सिंह, मगन सिंह व नैन सिंह प्रमुख थे| मास्टर रघुवीर सिंह तो जीवन पर्यन्त किसान बोर्डिंग हाउस (छात्रावास) के जनरल मैनेजर रहे।
मारवाड़ के देहाती बालकों की शिक्षा की सहूलियत वास्ते विभिन्न कस्बों मेंं छात्रावास स्थापित करने के बाद मौजिज किसान नेताओं ने समाज सुधार की दिशा मेंं भी कदम बढ़ाए। जोधपुर राज्य के किसानों के हितों की रक्षा हेतु 22 अगस्त 1938 को तेजा दशमी के दिन परबतसर के पशु मेंले के अवसर पर ‘‘मारवाड़ जाट कृषक सुधारक सभा‘‘ नामक संस्था की स्थापना की। चौधरी मूलचंद इस सभा के प्रधानमंत्री बने, चौधरी गुल्लाराम रतकुड़िया इसके अध्यक्ष और चै. भींयाराम सिहाग कोषाध्यक्ष चुने गए।
इस सभा का प्रमुख उद्देशय किसानों मेंं प्रचलित कुरीतियों यथा बाल - विवाह, कुमेंल विवाह, मृत्युभोज ( मौसर ), दहेज प्रथा, लड़ाई - झगड़े, मुकदमेंबाजी, नशाखोरी, विवाह मेंं गंदे गीत गाना आदि को मिटाना और जागीरदारों के अत्याचारों से किसानों की रक्षा करना था। जगह - जगह सम्मेंलन आयोजित कर किसानों मेंं जागृति पैदा करने व कुप्रथाओं को त्यागने के प्रस्ताव पारित किए गए। छात्रावासों के चंदे पेटे जाट समाज के प्रत्येक घर को एक इकाई मानते हुए एक रूपया तथा विवाह के अवसर पर तीन से ग्यारह रुपये तक की राशि लिया जाना तय किया गया।
ठाकुर हुकम सिंह व भोला सिंह, उपदेशक हीरा सिंह पहाड़सर, पं. दत्तुराम भादरा, चौधरी गणपतराम, चौधरी जीवन राम, चौधरी चंदूलाल, चौधरी मोहरसिंह आदि ने भजनोपदेशक के कार्यक्रम आयोजित कर मारवाड़ के किसानों को कुरीतियों के प्रति जागरूक किया गया।
शिक्षा - पथ पर किसान - पुत्रों की प्रगति देखकर मारवाड़ के जागीरदार बौखला गए तथा किसानों का शोषण और बढ़ गया तथा उनका मनोबल तोड़ने के लिए उन पर हमले भी तेज कर दिए। इसका संगठित प्रतिरोध करने एवं किसानों के हकों की रक्षा के लिए किसान नेताओं ने किसानों का एक राजनीतिक संगठन बनाने पर विचार किया। श्री बलदेवराम मिर्धा ने 27 - 28 जून 1941 को सुमेंर स्कूल, जोधपुर के प्रांगण मेंं मारवाड़ के किसानों की एक सभा बुलाई। सभा मेंं विभिन्न परगनों से सभी जातियों के हजारों किसान उपस्थित हुए और इस सभा मेंं किसान - हितों की आवाज बुलंद करने के लिए ‘‘मारवाड़ किसान सभा‘‘ नामक राजनैतिक संगठन बनाने की घोषणा की गई। श्री मंगल सिंह कच्छवाहा को अध्यक्ष तथा श्री बालकिशन कच्छवाहा को सभा का मंत्री नियुक्त किया गया। श्री बलदेवराम मिर्धा इसके प्रमुख आयोजक थे। इतिहासकार प्रो. पेमाराम के मतानुसार उस समय ‘मारवाड़ मारवाड़ लोक परिषद‘ का जोधपुर के किसानों पर बढ़ते हुए प्रभाव को कम करने की नीयत से जोधपुर सरकार ने भी इस सभा की स्थापना मेंं प्रोत्साहन दिया था।
श्री बलदेवराम मिर्धा व चै. गुल्लाराम ने किसानों को लड़ाई झगड़े, खून - खराबे से दूर रहकर सरकार के प्रतिनिधियों के साथ वार्ता के जरिए सुलह करने एवं शाति - व्यवस्था बनाए रखने की सलाह दी। किसानों को सीधे जागीरदारों से टकराने से बचने की सलाह दी। जोधपुर सरकार के हस्तक्षेप से ही किसानों को न्याय दिलाने और उनकी तकलीफों के संबंध मेंं अनेक बुलेटिन जारी कर जोधपुर महाराजा से इनकी जाँच कराने तथा जागीरी इलाकों मेंं तत्काल भूमि बंदोबस्त - प्रारम्भ कराने की माँग की। इस पर जोधपुर सरकार ने लाग - बागों की जांच कराने के लिए कमेंटियाँ बनाई।
मारवाड़ किसान सभा का दूसरा अधिवेशन 25 - 26 अप्रेल 1943 को सर छोटूराम की अध्यक्षता मेंं जोधपुर मेंं आयोजित किया गया। इस सम्मेंलन मेंं जोधपुर के महाराजा भी उपस्थित हुए। यह अधिवेशन मारवाड़ के किसान - जागृति के इतिहास मेंं अपनी खास अहमियत रखता है। इस अधिवेशन मेंं किसान सभा द्वारा निवेदन करने पर जोधपुर महाराज ने मारवाड़ के जागीरी क्षेत्रों मेंं भूमि बंदोबस्त -शुरु करवाने की घोषणा की। मारवाड़ के जागीरदारों ने इस घोषणा का कड़ा विरोध किया।
जागीरदारों ने जगह - जगह सभाएँ कर उनमेंं भूमि बंदोबस्त का एकजुट होकर विरोध करने हेतु सेटलमेंंट के कर्मचारियों के साथ सहयोग न करने का निशचय किया। इतना ही नहीं उन्होंने भूमि नापने की सर्वे झंडिया को अनेक गावों से हटा दिया। जोधपुर सरकार ने इस पर जागीरदारों को कड़ी चेतावनी दी तथा बोरावड व खींवसर ठाकुर के खिलाफ कार्यवाही की। परिणामस्वरूप सेटलमेंंट कार्य का विरोध तो बंद हो गया, परन्तु जागीरदारों ने अब किसानों को आतंकित करना - शुरु कर दिया। जगह - जगह किसानों पर जानलेवा हमले किए गए। लाटा न लाटना, पशुओं को नीलाम करना, नई - नई लागें लगाना, झूठे मुकदमों मेंं फंसाना, खेती करने से रोकना, चोरियाँ करवाना आदि बातें आम हो गईं। किसानों द्वारा विरोध करने पर जागीरदार अपने गुंडों व एजेंटों से उनके घरों व खेतों को जला देते। कई किसानों के अंगभंग व हत्याओं जैसे काण्ड भी किए गए। ऐसे कांडों मेंं 13 मार्च 1947 का डाबाड़ा कांड प्रमुख है। इसमेंं 6 किसान मारे गए और बड़ी संख्या मेंं घायल हुए। इसके बाद तो जागीरदारों के संरक्षण मेंं कुख्यात डाकुओं की गोलियों से अनेक किसान शहीद हुए, जिसमेंं 31 अक्टूबर 1951 को दीवाली के अगले दिन रामरमी के दिन मलार - भूण्डाणा मेंं 18 निर्दोष किसानों को दिन - दहाड़े गोलियों से भूनने तथा पचास से अधिक किसानों को घायल करने की घटना विशेष उल्लेखनीय है। उस सामंतवाद युग में खुले बर्बर रूप मेंं प्रकट होने के कारण जोधपुर राज्य के किसानों को सबसे ज्यादा कुर्बानी देनी पड़ी।
उस उत्तेजनापूर्ण माहौल मेंं चौधरी बलदेव राम मिर्धा और चौधरी गुल्लाराम ने किसानों को जागीरदारों से सीधे टकराने से रोका और समझदारी के साथ शान्ति से काम लेने की अपील की। इसका नतीजा था कि मारवाड़ के किसान उत्तेजना के बावजूद - शात बने रहे और व्यर्थ के खून - खराबे से बच सके। देखा जाए तो मारवाड़ के किसानों के दिलों आज भी चौधरी बलदेव राम मिर्धा और चौधरी गुल्लाराम का खास स्थान है।